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६. ११-२६ ] आठ मूल कर्मप्रकृतियो के भिन-भिन्न बन्धहेतु १५७
भूत-अनुकम्पा, व्रती-अनुकम्पा, दान, सगगसयमादि योग, क्षान्ति और शौच ये सातावेदनीय कर्म के बन्धहेतु है।
केवलज्ञानी, श्रुत, संघ, धर्म एवं देव का अवर्णवाद दर्शनमोहनीय कर्म के बन्धहेतु है।
कषाय के उदय से होनेवाला तोब आत्मपरिणाम चारित्रमोहनीय कर्म का बन्धहेतु है।
बहु-आरम्भ और बहु-परिग्रह नरकायु के बन्धहेतु है । माया तिर्यंच-आयु का बन्धहेतु है ।
अल्प-आरम्भ, अल्प-परिग्रह, स्वभाव में मृदुता और सरलता ये मनुष्य-आयु के बन्धहेतु है।
शीलरहितता' और व्रतरहितता तथा पूर्वोक्त अल्प आरम्भ आदि सभी आयुओं के बन्धहेतु है।
सरांगसंयम, संयमासंयम, अकामनिर्जरा और बालतप ये देवायु के बन्धहेतु हैं।
योग की वक्रता और विसवाद अशुभ नामकर्म के बन्धहेतु है।
विपरीत अर्थात् योग की अवक्रता और अविसंवाद शुभ नामकर्म के बन्धहेतु है।
दर्शनविशुद्धि, विनयसम्पन्नता, शील और व्रतों में अत्यन्त अप्रमाद, ज्ञान में सतत उपयोग तथा सतत सवेग, यथाशक्ति त्याग और तप, संघ और साधु की समाधि और वैयावृत्त्य करना, अरिहंत, आचार्य, बहुश्रुत,
१, दिगम्बर परम्परा के अनुसार इस सूत्र का अर्थ है--निःशीलत्व और निव्र तत्व । ये दोनों नारक आदि तीन आयुओ के आस्रव है और भोगभूमि मे उत्पन्न मनुष्यो की अपेक्षा से निःशीलत्व और निव्र तत्व ये दोनो देवायु के भी आस्रव है । इस अर्थ मे देवायु के आस्रव का समावेश होता है, जिसका वर्णन भाष्य में नहीं है । परन्तु भाष्य की वृत्ति मे वृत्तिकार ने विचारपूर्वक भाष्य की यह त्रुटि जानकर इस बात की पूर्ति आगमानुसार कर लेने का निर्देश किया है। ____२. दिगम्बर परम्परा में देवायु के प्रस्तुत सत्र में इन आस्रवों के अतिरिक्त एक दूसरा भी आस्रव गिनाया है और उसके लिए इस सत्र के बाद ही 'सम्यक्त्वं च' सत्र है। इस परम्परा के अनुसार इस सत्र का अर्थ यह है कि सम्यक्त्व सौधर्म आदि कल्पवासी देवों की आयु का आस्रव है। भाष्य मे यह बात नहीं है । फिर भी वृत्तिकार ने भाष्यवृत्ति में अन्य कई आस्रवो के साथ-साथ सम्यक्त्व को भी गिन लिया है ।
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