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६. ८-१० ]
अधिकरण के भेद संरम्भ पद के स्थान पर समारम्भ और आरम्भ पद लगाने से छत्तीस-छत्तीस भेद और जुड़ जाते है । कुल मिलाकर ये १०८ भेद होते है ।
हिंसा आदि कार्यों के लिए प्रमादी जीव का प्रयत्न--आवेश संरम्भ कहलाता है, उसी कार्य के लिए साधन जुटाना समारम्भ और अन्त मे कार्य करना आरम्भ अर्थात् कार्य की संकल्पात्मक सूक्ष्म अवस्था से लेकर उसे प्रकट रूप में पूरा कर देने तक तीन अवस्थाएँ अनुक्रम से सरम्भ, समारम्भ और आरम्भ है । योग के तीन प्रकारो का वर्णन पहले हो चुका है । कृत अर्थात् स्वयं करना, कारित अर्थात् दूसरे से कराना और अनुमत अर्थात् किसी के कार्य का अनुमोदन करना । क्रोध, मान, माया और लोभ ये चारो कषाय प्रसिद्ध है ।
जब कोई संसारी जीव दान आदि शुभ कार्य अथवा हिसा आदि अशुभ कार्य से सम्बन्ध रखता है तब वह क्रोध या मान आदि किसी कषाय से प्रेरित होता है । कषायप्रेरित होने पर भी कभी वह स्वय करता है या दूसरे से करवाता है अथवा दूसरे के काम का अनुमोदन करता है। इसी प्रकार वह कभी उस काम के लिए कायिक, वाचिक और मानसिक सरम्भ, समारम्भ या आरम्भ से युक्त अवश्य होता है । ९।
परमाणु आदि मूर्त वस्तु द्रव्य-अजीवाधिकरण है। जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति मे उपयोगी मूर्त द्रव्य जिस अवस्था मे वर्तमान होता है वह भाव-अजीवाधिकरण है । यहाँ इस भावाधिकरण के मुख्य चार भेद बतलाए गये है। जैसे निर्वर्तना ( रचना ), निक्षेप ( रखना ), संयोग ( मिलना ) और निसर्ग (प्रवर्तन ) । निर्वर्तना के दो भेद है-मलगुणनिर्वर्तना और उत्तरगुणनिर्वर्तना । पुद्गल द्रव्य को जो औदारिक आदि शरीररूप रचना अन्तरङ्ग साधनरूप से जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति मे उपयोगी होती है वह मूलगुणनिर्वर्तना है तथा पुद्गल द्रव्य की जो लकडी, पत्थर आदि रूप परिणति बाह्य साधनरूप मे जीव की शुभाशुभ प्रवृत्ति मे उपयोगी होती है वह उत्तरगुण निर्वर्तना है ।
निक्षप के चार भेद है-अप्रत्यवेक्षितनिक्षेप, दुष्प्रमाजित निक्षेप, सहसानिक्षेप और अनाभोगनिक्षेप । प्रत्यवेक्षण किये बिना अर्थात् अच्छी तरह देखे बिना ही किसी वस्तु को कही रख देना अप्रत्यवेक्षितनिक्षेप है। प्रत्यवेक्षण करने पर भीठीक तरह प्रमार्जन किये बिना ही वस्तु को जैसे-तैसे रख देना दुष्प्रमाजित निक्षेप है। प्रत्यवेक्षण और प्रमार्जन किये बिना ही सहसा अर्थात् जल्दी से वस्तु को रख देना सहसानिक्षेप है। उपयोग के बिना ही किसी वस्तु को कही रख देना अनाभोगनिक्षेप है।
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