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परिणाम-भेद से कर्मबन्ध मे विशेषता
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कौन सी प्रवृत्ति व्यवहार में मुख्यतया दिखाई पड़ती है और संवर के अभिलाषी को कौन-कौन सी प्रवृत्ति रोकने की ओर ध्यान देना चाहिए । ६ ।
बन्ध का कारण समान होने पर भी परिणामभेद से कर्मबन्ध में विशेषता तीव्रमन्दज्ञाताज्ञातभाववीर्याऽधिकरणवि शेषेभ्यस्तद्विशेषः । ७ । तीव्रभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, वीर्य और अधिकरण के भेद से उसकी ( कर्मबन्ध की ) विशेषता होनी है ।
प्राणातिपात, इन्द्रियव्यापार और सम्यक्त्वक्रिया आदि उक्त आस्रव ( बन्धकारण ) समान होने पर भी तज्जन्य कर्मबन्ध में किस-किस कारण से विशेषता होती है यही इस सूत्र में प्रतिपादित है ।
बाह्य बन्धकारण समान होने पर भी परिणाम की तीव्रता और मन्दता के कारण कर्मबन्ध भिन्न-भिन्न प्रकार का होता है । जैसे एक ही दृश्य के दो दर्शकों मे से मंद आसक्तिवाले की अपेक्षा तीव्र आसक्तिवाला कर्म का तीव्र बन्ध ही करता है । इच्छापूर्वक प्रवृत्ति करना ज्ञातभाव है और बिना इच्छा के कृत्य का हो जाना अज्ञातभाव है । ज्ञातभाव और अज्ञातभाव मे बाह्य व्यापार समान होने पर भी कर्मबन्ध में अन्तर पडता है । जैसे एक व्यक्ति हरिण को हरिण समझकर बाण से बींध डालता है और दूसरा निशाना साधता तो है किसी निर्जीव पदार्थ पर किन्तु भूल से हरिण बिंध जाता है । भूल से मारनेवाले की अपेक्षा समझपूर्वक मारनेवाले का कर्मबन्ध उत्कट होता है । वीर्य ( शक्तिविशेष ) भी कर्म - बन्ध की विचित्रता का कारण होता है । जैसे द्रान, सेवा आदि शुभ कार्य हो या हिंसा, चोरी आदि अशुभ कार्य, सभी शुभाशुभ कार्य बलवान् मनुष्य जिस सहजता और उत्साहू से कर सकता है, निर्बल मनुष्य वही कार्य बडी कठिनाई से कर पाता है, इसलिए बलवान् की अपेक्षा निर्बल का शुभाशुभ कर्मबन्ध मन्द होता है ।
जीवाजीवरूप अधिकरण के अनेक भेद है । उनकी विशेषता से भी कर्मबन्ध मे विशेषता आती है । जैसे हत्या, चोरी आदि अशुभ और पर-रक्षण आदि शुभ कार्य करनेवाले दो मनुष्यो मे से एक के पास अधिकरण ( शस्त्र ) उग्र हो और दूसरे के पास साधारण हो तो सामान्य शस्त्रधारी की अपेक्षा उग्र शस्त्रवारी का कर्मबन्ध तीव्र होना सम्भव है, क्यं कि उग्र शस्त्र के सन्निधान से उसमें एक प्रकार का तीव्र आवेश रहता है ।
बाह्य कासव की समानता होने पर भी कर्मबन्ध मे असमानता के कारण रूप - से सूत्र में बीर्य, अधिकरण आदि की विशेषता का कथन किया गया है । फिर
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