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तत्त्वार्थसूत्र
[६. ८-१०
भी कर्मबन्ध की विशेषता का विशेष निमित्त काषायिक परिणाम का तीव्र-मन्द भाव ही है। परन्तु सज्ञानप्रवृति और शक्ति की विशेषता कर्मबन्ध की विशेषता की कारण काषायिक परिणाम की विशेषता के द्वारा ही होती है। इसी प्रकार कर्मबन्ध की विशेषता मे शस्त्र को विशेषता के निमित्तभाव का कथन भी काषायिक परिणाम की तीव्र-मन्दता के अनुसार ही है । ७ ।
अधिकरण के भेद अधिकरणं जीवाजीवाः । ८। आद्यं संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषायविशेषैस्त्रिस्त्रिस्त्रिश्चतुश्चैकशः।९।
निर्वर्तनानिक्षेपसंयोगनिसर्गा द्विचतुद्वित्रिभेदाः परम् । १० । अधिकरण जीव और अजीवरूप है।
आद्य अर्थात् जीव-अधिकरण क्रमशः संरम्भ, समारम्भ, आरभ्भ के. रूप मे तीन प्रकार का, योगरूप में तीन प्रकार का, कृत कारित, अनुमत के रूप में तीन प्रकार का और कषाय रूप में चार प्रकार का है।
पर अर्थात् अजीवाधिकरण निर्वर्तना, निक्षेप, सयोग और निसर्ग के अनुकम से दो, चार, दो और तीन भेदरूप है।
शुभ-अशुभ सभी कार्य जीव और अजीव से ही सिद्ध होते है। अकेला जीव या अकेला अजीव कुछ नही कर सकता । इसलिए जीव और अजीव दोनो अधिकरण है अर्थात् कर्मबन्ध के साधन, उपकरण या शस्त्र है । दोनो अधिकरण द्रव्यभाव रूप मे दो दो प्रकार के है। जीव व्यक्ति या अजीव वस्तु द्रव्याधिकरण है और जीवगत कषाय आदि परिणाम तथा छुरी आदि निर्जीव वस्तु की तीक्ष्णतारूप शक्ति आदि भावाधिकरण है । ८ ।
ससारी जीव शुभ या अशुभ प्रवृत्ति करते समय एक सौ आठ अवस्थाओ मे से किसी-न-किसी अवस्था में अवश्य रहता है । इसलिए वे अवस्थाएं भावाधिकरण है, जैसे क्रोधकृत कायसरम्भ, मानकृत कायसंरम्भ, मायाकृत कायसंरम्भ, लोभकृत कायसंरम्भ ये चार । इसी प्रकार कृत पद के स्थान पर कारित तथा अनुमत पद लगाने से क्रोधकारित कायसंरम्भ आदि चार तथा क्रोध-अनुमत कायसरम्भ आदि चार-कुल बारह भेद होते है । इसी प्रकार काय के स्थान पर वचन और मन पद लगाने पर दोनो के बारह-बारह भेद होते है, जैसे क्रोधकृत वचनसंरम्भ आदि तथा क्रोधकृत मनःसंरम्भ आदि । तीनों के इन छत्तीस भेदों में
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