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६. ६) साम्परायिक कर्मास्रव के भेद
१५१ कषायोदयवाली आत्माएँ काययोग आदि तीन प्रकार के शुभ अशुभ योग से जो कर्म बाँधती है वह साम्परायिक अर्थात् कषाय की तीव्रता या मन्दता के अनुसार अधिक या अल्प स्थितिवाला होता है और यथासम्भव शुभाशुभ विपाक का कारण भी। परन्तु कषायमुक्त आत्माएँ तीनो प्रकार के योग से जो कर्म बाँधती है वह कषाय के अभाव के कारण न तो विपाकजनक होता है और न एक समय से अधिक स्थिति ही प्राप्त करता है। एक समय की स्थितिवाले इस कर्म को ईर्यापथिक कहने का कारण यह है कि वह कर्म कषाय के अभाव मे केवल ईर्या ( गमनागमनादि क्रिया) के पथ द्वारा ही बाँधा जाता है । साराश यह है कि तीनों प्रकार का योग समान होने पर भी कषाय न हो तो उपाजित कर्म मे स्थिति या रस का बन्ध नही होता। स्थिति और रस दोनो के बन्ध का कारण कषाय ही है । अतएव कषाय ही संसार की मूल जड़ है । ५ ।
साम्परायिक कर्मास्रव के भेद अव्रतकषायेन्द्रियक्रियाः पञ्चचतुःपञ्चपञ्चविंशतिसंख्याः पूर्वस्य भेदाः।६।
पूर्व के अर्थात् साम्परायिक कर्मास्रव के अव्रत, कषाय, इन्द्रिय और क्रियारूप भेद है जिनकी सख्या क्रमशः पॉच, चार, पॉच और पच्चीस है।
जिन हेतुओ से साम्परायिक कर्म का बन्ध होता है वे साम्परायिक कर्म के आस्रव है । ऐसे आस्रव सकषाय जीवो मे ही होते है। प्रस्तुत सूत्र मे साम्परायिक कर्मास्रव के भेदो का ही कथन है, क्योकि वे कषायमूलक है ।
__ हिंसा, असत्य, चोरी, अब्रह्म और परिग्रह ये पॉच अव्रत है, जिनका निरूपण सातवें अध्याय के सूत्र ८ से १२ तक मे है। क्रोध, मान, माया और लोभ ये चार कषाय है, जिनका विशेष स्वरूप अध्याय ८, सूत्र १० मे वर्णित है। स्पर्शन आदि पाँच इन्द्रियो का वर्णन अध्याय २, सूत्र २० मे हो चुका है। यहाँ इन्द्रिय का अर्थ राग-द्वेषयुक्त प्रवृत्ति है, क्योकि स्वरूप मात्र से कोई इन्द्रिय कर्मबन्ध का कारण नही होती और न इन्द्रियों की राग-द्वेषरहित प्रवृत्ति ही कर्मबन्ध का कारण होती है।
पच्चीस क्रियाओं के नाम और लक्षण-१. सम्यक्त्वक्रिया--देव, गुरु व शास्त्र की पूजाप्रतिपत्तिरूप होने से सम्यक्त्व पोषक, २. मिथ्यात्वक्रियामिथ्यात्व-मोहनीय कर्म से होनेवाली सराग देव की स्तुति-उपासना आदिरूप, ३. प्रयोगक्रिया-शरीर आदि द्वारा जाने-आने आदि मे कषाययुक्त प्रवृत्ति, ४. समादानक्रिया-त्यागी होते हुए भोगवृत्ति की ओर झुकाव, ५. ईर्यापथक्रियाएक सामयिक कर्म के बन्धन या वेदन की कारणभूत क्रिया ।
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