________________
१५०
तत्त्वार्थ सूत्र
[ ६.५
है, वैसे ही छठे आदि गुणस्थानों मे शुभ योग के समय भी सभी पुण्य-पाप प्रकृतियों का यथासम्भव बन्ध होता है । फिर शुभयोग का पुण्य-बन्ध के कारणरूप मे और अशुभयोग का पाप-बन्ध के कारणरूप मे अलग-अलग विधान कैसे सगत हो सकता है ? इसलिए प्रस्तुत विधान मुख्यतया अनुभागबन्ध की अपेक्षा से है । शुभयोग की तीव्रता के समय पुण्य - प्रकृतियो के अनुभाग ( रस ) की मात्रा अधिक और पाप-प्रकृतियो के 'अनुभाग की मात्रा अल्प निष्पन्न होती है । इससे उलटे अशुभयोग की तीव्रता के समय पाप-प्रकृतियो का अनुभागबन्ध अधिक और पुण्य - प्रकृतियो का अनुभागबन्ध अल्प होता है । इसमे जो शुभयोगजन्य पुण्यानुभाग की अधिक मात्रा तथा अशुभयोगजन्य पापानुभाग की अधिक मात्रा है, उसे प्रधान मानकर सूत्रो मे अनुक्रम से शुभयोग को पुण्य का और अशुभयोग को पाप का कारण कहा गया है। शुभयोगजन्य पापानुभाग की अल्प मात्रा और अशुभयोगजन्य पुण्यानुभाग की अल्प मात्रा विवक्षित नही है, क्योकि लोक की भाँति शास्त्र में भी प्रधानतापूर्वक व्यवहार का विधान प्रसिद्ध है ।' ३-४ । स्वामिभेद से योग का फलभेद
सकषायाकषाययोः साम्परायिकेर्यापथयोः । ९ ।
कषायसहित और कषायरहित आत्मा का योग अनुक्रम से साम्परायिक कर्म और ईर्यापथ कर्म का बन्धहेतु ( आस्रव ) होता है ।
जिनमे क्रोध लोभ आदि कषायों का उदय हो वे कषायसहित है और जिनमे न हो वे कषायरहित है । पहले से दसवे गुणस्थान तक के सभी जीव न्यूनाधिक प्रमाण में सकषाय होते है और ग्यारहवे तथा आगे के गुणस्थानवर्ती अकषाय होते है ।
आत्मा का पराभव करनेवाला कर्म साम्परायिक कहलाता है । जैसे गीले चमडे के ऊपर हवा द्वारा पडी हुई रज उससे चिपक जाती है, वैसे ही योग द्वारा आकृष्ट होनेवाला जो कर्म कषायोदय के कारण आत्मा के साथ सम्बद्ध होकर स्थिति पा लेता है वह साम्परायिक कर्म है । सूखी दीवाल के ऊपर लगे हुए लकड़ी के गोले की तरह योग से आकृष्ट जो कर्म कषायोदय न होने से आत्मा के साथ लगकर तुरन्त ही छूट जाता है वह ईर्यापथ कर्म कहलाता है । ईर्यापथ कर्म की स्थिति केवल एक समय की मानी गई है ।
१. 'प्राधान्येन व्यपदेशा भवन्ति' का न्याय । जैसे जहाँ ब्राह्मणो की प्रधानता हो या उनकी संख्या अधिक हो वहाँ अन्य वर्ण के लोगो के होने पर भी वह गाँव ब्राह्मणो का कहलाता है ।
Jain Education International
For Private Personal Use Only
www.jainelibrary.org