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६. ३-४] योग के भेद और उनका कार्यभेद
योग के भेद और उनका कार्यभेद
शुभः पुण्यस्य । ३।
अशुभः पापस्य' । ४। शुभ योग पुण्य का आस्रव (बन्धहेतु) है। अशुभ योग पाप का आस्रव है। काययोग आदि तीनों योग शुभ भी है और अशुभ भी।
योग के शुभत्व और अशुभत्व का आधार भावना की शुभाशुभता है । शुभ उद्देश्य से प्रवृत्त योग शुभ और अशुभ उद्देश्य से प्रवृत्त योग अशुभ है। कार्यकर्मबन्ध की शुभाशुभता-पर योग की शुभाशुभता अवलम्बित नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने से सभी योग अशुभ ही हो जायँगे, कोई योग शुभ न रह जायेगा, जब कि शुभ योग भी आठवें आदि गुणस्थानों में अशुभ ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के बन्ध का कारण होता है ।
हिंसा, चोरी, अब्रह्म आदि कायिक व्यापार अशुभ काययोग और दया, दान, ब्रह्मचर्यपालन आदि शुभ काययोग है । सत्य किन्तु सावध भाषण, मिथ्या भाषण, कठोर भाषण आदि अशुभ वाग्योग और निरवद्य सत्य भाषण, मृदु तथा सभ्य आदि भाषण शुभ वाग्योग है । दूसरों की बुराई का तथा उनके वध आदि का चिन्तन करना अशुभ मनोयोग और दूसरों की भलाई का चिन्तन आदि करना तथा उनके उत्कर्ष से प्रसन्न होना शुभ मनोयोग है।
शुभ-योग का कार्य पुण्य प्रकृति का बन्ध और अशुभ-योग का कार्य पापप्रकृति का बन्ध है । प्रस्तुत सूत्रों का यह विधान आपेक्षिक है, क्योंकि संक्लेश ( कषाय ) की मन्दता के समय होनेवाला योग शुभ और संक्लेश की तीव्रता के समय होनेवाला योग अशुभ है। जैसे अशुभ योग के समय प्रथम आदि गुणस्थानों में ज्ञानावरणीय आदि सभी पुण्य-पाप प्रकृतियों का यथासम्भव बन्ध होता
१. सत्र ३ व ४ के स्थान पर 'शुभ पुण्यस्याशुभः पापस्य' यह एक ही सत्र दिगम्बर ग्रन्थो में सत्र ३ के रूप में है। परंतु राजवार्तिक में 'ततः सत्रद्वयमनर्थकम्' उल्लेख प्रस्तुत सत्रो की चर्चा मे मिलता है : देखें--पृष्ठ २४८ वात्तिक ७ की टीका । इस उल्लेख से ज्ञात होता है कि व्याख्याकारों ने दोनों सत्र साथ लिखकर उन पर एक साथ ही व्याख्या की होगी और लिपिकारों या प्रकाशकों ने एक साथ सत्र-पाठ और व्याख्या देखकर दोनों सूत्रों को अलग-अलग न मानकर एक ही सूत्र सम्झ लिया होगा और एक ही संख्या लिख दी होगी।
२. इसके लिए देखें--हिदी चौथा कर्मग्रन्थ, गुणस्थानों मे बन्धविचार; तथा हिंदी दूसरा कर्मग्रन्थ।
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