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५ ४२-४४]
परिणाम के भेद तथा आश्रयविभाग
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जिसके काल को पूर्वकोटि ज्ञात न हो सके वह अनादि तथा जिसके काल को पूर्वकोटि ज्ञात हो सके वह आदिमान् है। अनादि और आदिमान् शब्द का सामान्य रूप से सर्वत्र प्रसिद्ध उक्त अर्थ मान लेने पर द्विविध परिणाम के आश्रय का विचार करते समय यही सिद्धान्त स्थिर होता है कि रूपी या अरूपी सभी द्रव्यों मे अनादि और आदिमान् दोनो प्रकार के परिणाम होते है । प्रवाह की अपेक्षा से अनादि और व्यक्ति की अपेक्षा से आदिमान् परिणाम सबमे समान रूप से घटित किया जा सकता है। ऐसा होने पर भी प्रस्तुत सूत्रों में तथा इनके भाष्य में भी उक्त अर्थ सम्पूर्णतया तथा स्पष्टतया क्यों नहीं निरूपित किया गया ? यह प्रश्न वृत्तिकार ने भाष्य की वृत्ति मे उठाया है और अन्त मे स्वीकार किया है कि वस्तुतः सब द्रव्यों में अनादि तथा आदिमान् दोनों परिणाम होते है । ___सर्वार्थसिद्धि आदि दिगम्बर व्याख्या-ग्रन्थों मे तो सब द्रव्यो मे दोनों प्रकार के परिणाम होने का स्पष्ट निरूपण है और इसका समर्थन भी किया है कि द्रव्यसामान्य की अपेक्षा से अनादि और पर्याय-विशेष की अपेक्षा से आदिमान् परिणाम होता है।
दिगम्बर व्याख्याकारों ने ४२ से ४४ तक के तीन सूत्र मूलपाठ मे न रखकर 'तभाव. परिणामः' सूत्र की व्याख्या में ही परिणाम के भेद और उनके आश्रय का कथन सम्पूर्णतया तथा स्पष्ट रूप मे किया है । इससे ज्ञात होता है कि उनको भी परिणाम के आश्रयविभागपरक प्रस्तुत सूत्रों तथा उनके भाष्य मे अर्थत्रुटि अथवा अस्पष्टता अवश्य प्रतीत हुई होगी। इसीलिए उन्होने अपूर्णार्थक सूत्रों को पूर्ण करने की अपेक्षा अपने वक्तव्य को स्वतन्त्र रूप से कहना ही उचित समझा।
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