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तत्त्वार्थसुत्र
[५. ४२-४४ पहले कई स्थलो पर परिणाम का भी कथन आ चुका है। अतः यहाँ उसका स्वरूप दर्शाया जा रहा है ।।
बौद्ध दर्शन के अनुसार वस्तुमात्र क्षणस्थायी और निरन्वयविनाशी है । इसके अनुसार परिणाम का अर्थ उत्पन्न होकर सर्वथा नष्ट हो जाना अर्थात् नाश के बाद किसी तत्त्व का स्थित न रहना फलित होता है। नैयायिक आदि भेदवादी दर्शनों के अनुसार-जो कि गुण और द्रव्य का एकान्त भेद मानते है'सर्वथा अविकृत द्रव्य में गुणों का उत्पन्न तथा नष्ट होना' परिणाम का अर्थ फलित होता है । इन दोनों मतों से भिन्न परिणाम के स्वरूप के सम्बन्ध मे जैन दर्शन का मन्तव्यभेद ही इस सूत्र मे दर्शाया गया है।
कोई द्रव्य अथवा गुण सर्वथा अविकृत नही होता। विकृत अर्थात् अवस्थान्तरों को प्राप्त होते रहने पर भी कोई द्रव्य अथवा गुण अपनी मूल जाति ( स्वभाव ) का त्याग नहीं करता । साराश यह है कि द्रव्य या गुण अपनी-अपनी जाति का त्याग किये बिना प्रतिसमय निमित्तानुसार भिन्न भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त होते रहते है । यही द्रव्यो तथा गुणो का परिणाम है ।
आत्मा मनुष्य के रूप में हो या पशु-पक्षो के रूप मे, चाहे जिन अवस्थाओं में रहने पर भी उसमे आत्मत्व बना रहता है । इसी प्रकार ज्ञानरूप साकार उपयोग हो या दर्शनरूप निराकार उपयोग, घट-विषयक ज्ञान हो या पट-विषयक, सब उपयोग-पर्यायो मे चेतना बनी ही रहती है । चाहे द्वयणुक अवस्था हो या त्र्यणक आदि, पर उन अनेक अवस्थाओं में भी पुद्गल अपने पुद्गलपन को नहीं छोड़ता। इसी प्रकार शुक्ल रूप बदलकर कृष्ण हो, या कृष्ण बदलकर पीत हो, उन विविध वर्णपर्यायों मे रूपत्व-स्वभाव स्थित रहता है । यही बात प्रत्येक द्रव्य और उसके प्रत्येक गुण के विषय मे है । ४१ ।
परिणाम के भेद तथा आश्रयविभाग
अनादिरादिमांश्च । ४२ । रूपिष्वादिमान् । ४३॥
योगोपयोगी जीवेषु । ४४ । वह अनादि और आदिमान् दो प्रकार का है । रूपी अर्थात् पूद्गलों में आदिमान है।
जीवों में योग और उपयोग आदिमान् हैं। १. देखें-अ० ५, सू० २२, ३६ ।
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