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५. ४०-४१] गुण तथा परिणाम का स्वरूप
१४५ पहले काल के वर्तना आदि अनेक पर्याय कहे गए है, परन्तु धर्मास्तिकाय आदि की भांति उसमे द्रव्यत्व का विधान नहीं किया गया।' इसलिए प्रश्न उठता है कि क्या पहले विधान न करने से काल द्रव्य नहीं है ? अथवा वर्तना आदि पर्यायों का वर्णन करने से काल की गणना द्रव्य में हो जाती है ? इन प्रश्नों का उत्तर यहाँ दिया जा रहा है।
सूत्रकार कहते है कि कोई आचार्य काल को द्रव्य मानते है। सूत्रकार का सात्पर्य यह प्रतीत होता है कि काल का स्वतन्त्र द्रव्यत्व सर्वसम्मत नहीं है।
काल को स्वतन्त्र द्रव्य माननेवाले आचार्य के मत का निराकरण सूत्रकार ने नहीं किया, उसका उल्लेखमात्र कर दिया है। यहाँ सूत्रकार कहते है कि काल अनन्त पर्यायवाला है। काल के वर्तना आदि पर्यायों का कथन तो पहले हो चुका है। समयरूप पर्याय भी काल के ही है । वर्तमानकालीन समयपर्याय तो एक ही होता है, परन्तु अतीत, अनागत समय के पर्याय अनन्त होते है । इसीलिए काल को अनन्त समयवाला कहा गया है । ३८-:९ ।
गुण का स्वरूप
द्रव्याश्रया निगुणा गुणाः । ४० । जो द्रव्य में सदा रहनेवाले और गुणरहित हैं वे गुण हैं ।
द्रव्य के लक्षण मे गुण का कथन आ गया है, इसलिए यहाँ उसका स्वरूप बतलाया जा रहा है।
पर्याय भी द्रव्य के ही आश्रित और निर्गुण है फिर भी उत्पाद-विनाशशील होने से द्रव्य मे सदा मही रहते, पर गुण तो नित्य होने से सदा द्रव्याश्रित होते है । गुण और पर्याय मे यही अन्तर है।
द्रव्य में सदा वर्तमान शक्तियां ही गुण है, जो पर्याय की जनक मानी जाती है। उन गुणो मे पुन. गुणान्तर या शक्त्यन्तर मानने से अनवस्था दोष आता है, इसलिए द्रव्य निष्ठ शक्तिरूप गुण निर्गुण ही माने गए है । आत्मा के गुण चेतना, सम्यक्त्व, चारित्र, आनन्द, वीर्य आदि और पुमल के गुण रूप, रस, गन्ध, स्पर्श आदि है।
परिणाम का स्वरूप
तिनाबपरिणामः । ४१ । उसका होना अर्थात् स्वरूप में स्थित रहते हुए उत्पन्न तथा नष्ट होना परिणाम है। १. देखें-अ० ५, सू० २२ । २. देखें-अ० ५, स० ३७ ।
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