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४. ११-२०]
चतुनिकाय के देवों के भेद
कामलालसा से परे होते है । उन्हे देवियों के स्पर्श, रूप, शब्द या चिन्तन द्वारा कामसुख भोगने की अपेक्षा नहीं रहती, फिर भी वे नीचे के देवो से अधिक सन्तुष्ट और अधिक सुखो होते है । इसका स्पष्ट कारण यह है कि ज्यों-ज्यों कामवासना प्रबल होती है त्यो-त्यों चित्तसंक्लेश अधिक बढता है तथा ज्यों-ज्यो चित्तसंक्लेश बढता है त्यों-त्यो उसके निवारण के लिए विषयभोग भो अधिकाधिक आवश्यक होता है। दूसरे स्वर्ग तक के देवो की अपेक्षा तीसरे और चौथे स्वर्ग के देवो की, उनकी अपेक्षा पाँचवें-छठे स्वर्ग के देवों की और इस तरह कार-ऊपर के स्वर्गों के देवों की कामवासना मन्द होती जाती है। इसलिए उनका चित्तसंक्लेश भी कम होता जाता है। उनके कामभोग के साधन भी अल्प होते है । बारहवें स्वर्ग से ऊपर के देवो की कामवासना शान्त होती है, अत उन्हे स्पर्श, रूप, शब्द, चिन्तन आदि किसी भी प्रकार के भोग की कामना नहीं होती। वे संतोषजन्य परमसुख मे निमग्न रहते है। यही कारण है कि नीचे-नीचे की अपेक्षा ऊपर-ऊपर के देवों का सुख अधिकाधिक माना गया है । ८-१० ।
चनुनिकाय के देवों के भेद भवनवासिनोऽसुरनागविद्युत्सुपर्णाग्निवातस्तनितोदधिद्वीपदिक्कुमाराः।११। व्यन्तराः किन्नरकिंपुरुषमहोरगगान्धर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः । १२ । ज्योतिष्काः सूर्याश्चन्द्रमसो ग्रहनक्षत्रप्रकीर्णतारकाश्च । १३ । मेरुप्रदक्षिणा नित्यगतयो नृलोके । १४ । तत्कृतः कालविभागः । १५ । बहिरवस्थिताः । १६ । वैमानिकाः । १७॥ कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्च । १८ । उपयु परि । १९ । सौधर्मेशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मलोकलान्तकमहाशुक्रसहस्रारेष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयोर्नवसु प्रैवेयकेषु विजयवैजयन्तजयन्ताऽपराजितेषु सर्वार्थसिद्ध च' । २० ।
१. श्वेताम्बर परम्परा में बारह कल्प माने गए है । दिगम्बर परम्परा मे सोलह कल्पों की मान्यता है, अतः उनमे ब्रह्मोत्तर, कापिष्ठ, शक्र और शतार ये चार कल्प अधिक हैं, जो क्रमशः छठे, आठवे, नवे और ग्यारहवे है।
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