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४. २१-२२ ] देवों की उत्तरोत्तर अधिकता और हीनता बिषयक बातें १०५
अन्तर्गत है । यह प्रभाव ऊपर-ऊपर के देवों में अधिक है, फिर भी उनमें उत्तरोत्तर अभिमान व संक्लेश परिणान कम होने से वे अपने प्रभाव का उपयोग कम ही करते हैं ।
३.४. सुख और द्युति - इन्द्रियों द्वारा ग्राह्य विषयों का अनुभव करना सुख है | शरीर, वस्त्र और आभरण आदि की दीप्ति द्युति है । यह सुख और द्युति ऊपर-ऊपर के देवों में अधिक होने से उनमे उत्तरोत्तर क्षेत्रस्वभावजन्य शुभ पुद्गल - परिणाम की प्रकृष्टता होती है |
५. लेश्या - विशुद्धि — लेश्या के नियम की स्पष्टता सूत्र २३ में की जायेगी । यहाँ इतना ज्ञातव्य है कि जिन देवों की लेश्या समान है उनमे भी नीचे की अपेक्षा ऊपर के देवों की लेश्या संक्लेश परिणाम की न्यूनता के कारण उत्तरोत्तर विशुद्ध, विशुद्धतर होती है ।
६. इन्द्रिय विषय — दूर से इष्टविषयों को ग्रहण सामर्थ्य भी उत्तरोत्तर गुण की वृद्धि और संक्लेश की ऊपर के देवों में उत्तरोत्तर अधिक होता है ।
चार बातें ऐसी है जो नीचे की होती है । वे ये है :
७. प्रवधिविषय-- अवधिज्ञान का सामर्थ्य भी ऊपर-ऊपर के देवो मे अधिक होता है । पहले दूसरे स्वर्ग के देव अधोभूमि में रत्नप्रभा तक, तिरछे क्षेत्र में असंख्यात लाख योजन तक और ऊर्ध्वलोक में अपने-अपने भवन तक के क्षेत्र को अवधिज्ञान से जानते है । तीसरे चौथे स्वर्ग के देव अधोभूमि में तिरछे क्षेत्र में असंख्यात लाख योजन तक और ऊर्ध्वलोक में तक अवधिज्ञान से देख सकते है । इसी प्रकार क्रमशः बढते बढते अनुत्तर-विमानवासी देव सम्पूर्ण लोकनाली को अवधिज्ञान से देख सकते है । जिन देवो का अवधिज्ञान क्षेत्र समान होता है उनमे भी नीचे की अपेक्षा ऊपर के देवों में विशुद्ध, विशुद्धतर ज्ञान का सामर्थ्य होता है । २१ ।
अपेक्षा ऊपर के देवों में उत्तरोत्तर कम
करने का न्यूनता के
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इन्द्रियों का कारण ऊपर
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१. गति - - गमनक्रिया की शक्ति और गमनक्रिया में प्रवृत्ति ये दोनो बाते ऊपर-ऊपर के देवों में कम होती है, क्योकि उनसे उत्तरोत्तर महानुभावत्व और उदासीनत्व अधिक होने से देशान्तर विषयक क्रीडा करने की रति ( रुचि ) कम होती जाती है । सानत्कुमार आदि कल्पों के देव जिनकी जघन्य आयुस्थिति दो सागरोपम होती है, अधोभूमि में सातवें नरक तक और तिरछे क्षेत्र में असंख्यात हजार कोटाकोटि योजन पर्यन्त जाने का सामर्थ्य रखते है । इनके ऊपर के
शर्कराप्रभा तक, अपने-अपने भवन
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