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अजीव
द्वितीय से चतुर्थ अध्याय तक जीव तत्त्व का निरूपण हुआ। प्रस्तुत अध्याय मे अजीव तत्त्व का निरूपण किया जा रहा है ।
अजीव के भेद ___अजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः । १। धर्मास्तिकाय,अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और पुद्गलास्तिकाय ये चार अजीवकाय है।
निरूपणनियम के अनुसार पहले लक्षण का और फिर भेदों का कथन होना चाहिए, फिर भी यहाँ सूत्रकार ने अजीव तत्त्व का लक्षण न बतलाकर उसके भेदों का कथन किया है । इसका आशय यह है कि अजीव का लक्षण जीव के लक्षण से ही ज्ञात हो जाता है, उसका अलग से वर्णन करने की विशेष आवश्यकता नही । अ+जीव अर्थात् जो जीव नही है वह अजीव । जीव का लक्षण उपयोग है। जिसमें उपयोग न हो वह तत्त्व अजीव है। इस प्रकार अजीव का लक्षण उपयोग का अभाव ही फलित होता है ।
अजीव जीव का विरोधी भावात्मक तत्त्व है, केवल अभावात्मक नहीं।
धर्म आदि चार अजीव तत्त्वों को अस्तिकाय कहने का अभिप्राय यह है कि ये तत्त्व एक प्रदेशरूप या एक अवयवरूप नही है, अपितु प्रचय अर्थात् समूहरूप है। धर्म, अधर्म और आकाश ये तीन तत्त्व तो प्रदेशप्रचयरूप है तथा पुद्गल तत्त्व अवयवरूप व अवयवप्रचयरूप है।
अजीव तत्त्व के भेदों मे काल की गणना नही की गई है, क्योंकि काल को तत्त्व मानने में मतभेद है । काल को तत्त्व माननेवाले आचार्य भी उसे केवल प्रदेशात्मक मानते है, प्रदेशप्रचयरूप नही मानते; अतः उनके मत से भी अस्तिकायों के साथ काल का परिगणन युक्त नही है और जो आचार्य काल को स्वतन्त्र तत्त्व नही मानते उनके मत से तो तत्त्व के भेदों में काल का परिगणन सम्भव ही नहीं है।
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