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५. २१-२२]
कार्य द्वारा काल का लक्षण
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से प्रेरणा करना वर्तना है । स्वजाति का त्याग किये बिना होनेवाला द्रव्य का अपरिस्पन्द पर्याय परिणाम है जो पूर्वावस्था की निवृत्ति और उत्तरावस्था की उत्पत्तिरूप है। ऐसा परिणाम जीव में ज्ञानादि तथा क्रोधादिरूप, पुद्गल में नील-पीत वर्णादिरूप और धर्मास्तिकाय आदि शेष द्रव्यों में अगरुलघु गुण की हानि-वृद्धिरूप है। गति (परिस्पन्द ) ही क्रिया है । ज्येष्ठत्व परत्व है और कनिष्ठत्व अपरत्व । यद्यपि वर्तना आदि कार्य यथासम्भव धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों के ही हैं, तथापि काल सबका निमित्त कारण होने से यहाँ उनका वर्णन काल के उपकाररूप से किया गया है । २२ ।
१. अगुरुलधु शब्द जैन परम्परा में तीन प्रसंगों पर भिन्न-भिन्न अर्थ में व्यवहृत है :
(क) आश्मा के शान-दर्शन आदि जो आठ गुण आठ कर्म से आवार्य (आवरणयोग्य) माने गए है उनमें एक अगुरुलधुत्व नामक आत्मगुण है जो गोत्रकर्म से आवार्य है । गोत्र. कर्म का कार्य जीवन में उच्च-मीच भावं आरोपित करना है। लोकन्यवहार में जीव जन्म, जातिकुल देश, रूपरंप और अन्य अनेक निमित्तों से उच्च या नीच रूप में व्यवहृत होते हैं। परंतु सब आत्माएँ समान हैं, उनमें उच्च-नीचपन नहीं हैं। इस शक्ति और योग्यतामूलक साम्य को स्थिर रखनेवाले सहजगुण या शक्ति को अगुरुलघुत्व कहते हैं।
( ख ) अगुरुलघु-नाम नाम-कर्म का एक भेद है। उसका कार्य आगे नामकर्म की चर्चा में आया है।
(ग) 'क' क्रम पर की गई व्याख्यावाला अगुरुलघुत्व केवल आत्मगत है, जब कि प्रस्तुत अगुरुलधु गुण सभी जीव-अजीव द्रव्यों पर लागू होता है। यदि द्रव्य स्वतः परिणमनशील हो तो किसी समय भी. ऐसा क्यों नहीं होता कि वह द्रव्य अन्य द्रव्यरूप से भी परिणाम को प्राप्त करे ? इसी प्रकार यह प्रश्न भी उटता है कि एक द्रव्य में निहित भिन्न-भिन्न शक्तियाँ (गुण) अपने-अपने परिणाम उत्पन्न करती ही रहती हैं तो कोई एक शक्ति अपने परिणाम की नियतधारा की सीमा से बाहर जाकर अन्य शक्ति के परिणाम को क्यों नहीं पैदा करती ? इसी तरह यह प्रश्न भी उठता है कि एक द्रव्य में जो अनेक शक्तियाँ स्वीकृत की गई हैं वे अपना नियत सहचरत्व छोड़कर बिखर क्यों नहीं जातों ? इन तीनो प्रश्नों का उत्तर अगुरुलघु गुण से दिया जाता है। यह गुण सभी गव्यों में नियामक पद भोगता है, जिससे एक भी द्रव्य द्रव्यान्तर नहीं होता, एक भी गुण गुणान्तर का कार्य नहीं करता और नियत सहभावी परस्पर पृथक नहीं होते। __ अन्थों के सुस्पष्ट आधार के अतिरिक्त भी मैंने अगुरुलघु गुण की अंतिम व्याख्या का विचार किया। मैं इसका समाधान हूँढ़ रहा था। मुझसे जब कोई पूछता तब यह व्याख्या बतला देता। परंतु समाधान प्राप्त करने की जिज्ञासा तो रहती ही थी। प्रस्तुत टिप्पणी लिखते समय एकाएक स्व. पंडित गोपालदासजी बरैया की जैनसिद्धान्तप्रवेशिका पुस्तक मिल गई । इसमें श्रीयुत बरैयाजी ने भी यही विचार व्यक्त किया है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि इतने अंश में मेरे इस विचार को समर्थन प्राप्त हुआ । अतएब
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