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५. ३० ] विरोध-परिहार एवं परिणामिनित्यत्व का स्वरूप १३५ ज्ञात हो सकता है इसलिए दोनों दृष्टियों के अनुसार ही इस सूत्र में सत् ( वस्तु) का स्वरूप प्रतिपादित है । २९ ।
विरोध-परिहार एवं परिणामिनित्यत्व का स्वरूप
तद्भावाव्ययं नित्यम् । ३०। जो अपने भाव से ( अपनी जाति से ) च्युत न हो वही नित्य है।
पिछले सूत्र मे कहा गया कि एक ही वस्तु उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है अर्थात् स्थिरास्थिर (उभयरूप) है। परन्तु प्रश्न होता है कि यह कैसे सम्भव है ? जो स्थिर है वह अस्थिर कैसे ? जो अस्थिर है वह स्थिर कैसे ? एक ही वस्तु में स्थिरत्व और अस्थिरत्व दोनों अंश शीत-उष्ण की भांति परस्परविरुद्ध होने से एक ही समय मे हो नहीं सकते। इसलिए क्या सत् की उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक व्याख्या विरुद्ध नही है ? इस विरोध के परिहारार्थ जैन दर्शन सम्मत नित्यत्व का स्वरूप प्रतिपादित करना ही इस सूत्र का उद्देश्य है । ____ यदि कुछ अन्य दर्शनों की भाँति जैन दर्शन भी वस्तु का स्वरूप यह मानता कि "किसी भी प्रकार से परिवर्तन को प्राप्त किये बिना ही वस्तु सदा एक रूप में अवस्थित रहती है तो इस कूटस्थनित्यत्व में अनित्यत्व सम्भव न होने से एक ही वस्तु मे स्थिरत्व और अस्थिरत्व का विरोध आता। इसी प्रकार अगर जैन दर्शन वस्तु को मात्र क्षणिक अर्थात् प्रति क्षण उत्पन्न तथा नष्ट होनेवाली मानकर उसका कोई स्थायी आधार न मानता तो भी उत्पाद-व्ययशील अनित्यपरिणाम मे नित्यत्व सम्भव न होने से उक्त विरोध आता । परन्तु जैन दर्शन किसी वस्तु को केवल कूटस्थनित्य या परिणामिमात्र न मानकर परिणामिनित्य मानता है। इसलिए सभी तत्त्व अपनी-अपनी जाति मे स्थिर रहते हुए भी निमित्त के अनुसार परिवर्तन ( उत्पाद-व्यय) प्राप्त करते है। अतएव प्रत्येक वस्तु मे मूल जाति ( द्रव्य) की अपेक्षा से ध्रौव्य और परिणाम की अपेक्षा से उत्पाद-व्यय के घटित होने में कोई विरोध नही है । जैन दर्शन का परिणामिनित्यत्ववाट साख्य दर्शन की तरह केवल जड़ ( प्रकृति ) तक ही सीमित नहीं है, किन्तु वह चेतन तत्त्व पर भी घटित होता है।
सब तत्त्वों में व्यापक रूप से परिणामिनित्यत्ववाद को स्वीकार करने के लिए मुख्य साधक प्रमाण अनुभव है। सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर कोई ऐसा तत्त्व अनुभव में नहीं आता जो केवल अपरिणामी हो या मात्र परिमाणरूप हो। बाह्य और आभ्यन्तरिक सभी वस्तुएँ परिणामिनित्य ही प्रतीत होती है । यदि सभी वस्तुएँ मात्र क्षणिक हों तो प्रत्येक क्षण में नई-नई वस्तु उत्पन्न तथा नष्ट होने तथा उसकी
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