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तत्त्वार्थसुत्र
[५. ३२-३५
प्रकार विवक्षा और अविवक्षा के कारण कभी आत्मा को नित्य कहा जाता है और कभी अनित्य । जब दोनों धर्मो की विवक्षा एक साथ की जाती है तब दोनों का युगपत् प्रतिपादन करनेवाला वाचक शब्द न होने के कारण आत्मा को अवक्तव्य कहा जाता है। विवक्षा, अविवक्षा और सहविवक्षा के आश्रित उक्त तीन वाक्यरचनाओं के पारस्परिक विविध मिश्रण से और भी चार वाक्य-रचनाएँ बनती हैं। जैसे नित्य-अनित्य, नित्य-अवक्तव्य, अनित्य-अवक्तव्य और नित्य-अनित्य-अवक्तव्य । इन सात वाक्य-रचनाओं को सप्तभंगी कहा जाता है। इनमें प्रथम तीन वाक्य और इनमें भी दो वाक्य मूलभूत है । जैसे भिन्न-भिन्न दृष्टि से सिद्ध नित्यत्व और अनित्यत्व को लेकर विवक्षावश किसी एक वस्तु में सप्तभंगी घटित की जा सकती है, वैसे और भी भिन्न-भिन्न दृष्टिसिद्ध किन्तु परस्पर विरुद्ध दीखनेवाले सत्त्व असत्त्व, एकत्व-अनेकत्व, वाच्यत्व-अवाच्यत्व आदि धर्मयुग्मों को लेकर सप्तभंगी घटित करनी चाहिए। इस प्रकार एक ही वस्तु अनेकधर्मात्मक एवं अनेक व्यवहारों की विषय मानी गई है । ३१ ।
पौद्गलिक बन्ध के हेतु
स्निग्धरूक्षत्वाद् बन्धः । ३२ । स्निग्धत्व और रूक्षत्व से बन्ध होता है।
पौद्गलिक स्कन्ध की उत्पत्ति उसके अवयवभूत परमाणु आदि के पारस्परिक संयोग मात्र से नहीं होती। इसके लिए संयोग के अतिरिक्त और भी कुछ अपेक्षित होता है। यही इस सूत्र में दर्शाया गया है । अवयवों के पारस्परिक संयोग के उपरान्त उनमें स्निग्धत्व (चिकनापन), रूक्षत्व (रूखापन ) गुण का होना भी आवश्यक है । जब स्निग्ध और रूक्ष अवयव आपस में मिलते है तब उनका बन्ध ( एकत्वपरिणाम ) होता है, इसी बन्ध से द्वचणुक आदि स्कन्ध बनते है ।
स्निग्ध और रूक्ष अवयवो का श्लेष सदृश और विसदृश दो प्रकार का होता है। स्निग्ध का स्निग्ध के साथ और रूक्ष का रूक्ष के साथ श्लेष सदृश श्लेष है । स्निग्ध का रूक्ष के साथ श्लेष विसदृश श्लेष है । ३२ ।
बन्ध के सामान्य विधान के अपवाद
न जघन्यगुणानाम् । ३३ । गुणसाम्ये सदृशानाम् । ३४।
द्वयधिकादिगुणानां तु । ३५ । जघन्य गुण अर्थात् अंशवाले स्निग्ध और रूक्ष अवयवों का बन्ध नहीं होता।
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