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तत्त्वार्थसूत्र
[५. ३१ कोई स्थायी आधार न होने से उस क्षणिक परिणाम-परम्परा मे सजातीयता का कभी अनुभव नही होगा अर्थात् पहले देखी हुई वस्तु को फिर से देखने पर जो 'यह वही है' ऐसा प्रत्यभिज्ञान होता है वह न होगा, क्योकि जैसे प्रत्यभिज्ञान के लिए उसकी विषयभूत वस्तु का स्थिरत्व आवश्यक है, वैसे ही द्रष्टा आत्मा का स्थिरत्व भी आवश्यक है। इसी प्रकार यदि जड या चेतन तत्त्व मात्र निर्विकार हो तो इन दोनो तत्त्वो के मिश्रणरूप जगत् मे प्रतिक्षण दिखाई देनेवाली विविधता कभी उत्पन्न न होगी। अतः परिणामिनित्यत्ववाद को जैन दर्शन युक्तिसंगत मानता है।
व्याख्यान्तर से सत् का नित्यत्व
तद्भावाव्ययं नित्यम् सत् अपने भाव से च्युत न होने से नित्य है ।
उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक होना ही वस्तुमात्र का स्वरूप है और यही सत् है । सत्-स्वरूप नित्य है अर्थात् वह तीनो कालों मे एक-सा अवस्थित रहता है। ऐसा नहीं है कि किसी वस्तु मे या वस्तुमात्र मे उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य कभी हो और कभी न हों । प्रत्येक समय में उत्पादादि तीनों अंश अवश्य होते है । यही सत् का नित्यत्व है।
अपनी-अपनी जाति को न छोडना सभी द्रव्यों का ध्रौव्य है और प्रत्येक समय मे भिन्न-भिन्न परिणामरूप से उत्पन्न और नष्ट होना उत्पाद-व्यय है। ध्रौव्य तथा उत्पाद-व्यय का चक्र द्रव्यमात्र में सदा चलता रहता है। उस चक्र मे से कभी कोई अंश लुप्त नहीं होता, यही इस सूत्र में कहा गया है । पूर्व सूत्र में ध्रौव्य का कथन द्रव्य के अन्वयी ( स्थायी ) अंश मात्र को लेकर है और इस सूत्र मे नित्यत्व का कथन उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों अंशों के अविच्छिन्नत्व को लेकर है । यही पूर्व सूत्र में कथित ध्रौव्य और इस सूत्र मे कथित नित्यत्व में अन्तर है । ३० ।
अनेकान्त-स्वरूप का समर्थन
अर्पितानर्पितसिद्धेः । ३१ । प्रत्येक वस्तु अनेकधर्मात्मक है, क्योंकि अर्पित-अर्पणा अर्थात् अपेक्षा-विशेष से और अनर्पित-अनर्पणा अर्थात् अपेक्षान्तर से विरोधी स्वरूप सिद्ध होता है।
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