________________
१३४
तत्त्वार्थसूत्र
[५. २९
चाक्षुष बनने के हेतुओं का विशेष कथन हुआ है । अतः उस सामान्य विधान के अनुसार अचाक्षुष स्कन्ध की उत्पत्ति के तीन ही हेतु होते है। सारांश यह है कि सूत्र २६ के अनुसार भेद, संघात और भेद-संघात इन तीनों हेतुओं से अचाक्षुष स्कन्ध बनते है । २८ ।
'सत्' की व्याख्या
उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । २९ । जो उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनों से युक्त है वही सत् है ।
'सत' के स्वरूप के विषय मे विभिन्न दर्शनों मे मतभेद है। एक दर्शन' सम्पूर्ण सत् पदार्थ (ब्रह्म) को केवल ध्रुव (नित्य) ही मानता है। दूसरा दर्शन पदार्थ को निरन्वय क्षणिक ( मात्र उत्पाद-विनाशशील ) मानता है। तीसरा दर्शन चेतनतत्त्वरूप सत् को तो केवल ध्रुव ( कूटस्थनित्य ) और प्रकृति तत्त्वरूप सत् को परिणामिनित्य (नित्यानित्य ) मानता है। चौथा दर्शन अनेक सत् पदार्थों मे से परमाणु, काल, आत्मा आदि कुछ सत् तत्त्वों को कूटस्थनित्य और घट-पट आदि कुछ सत् को मात्र उत्पाद-व्ययशील ( अनित्य ) मानता है । परन्तु जैनदर्शन का सत् के स्वरूप से सम्बद्ध मन्तव्य इन मतों से भिन्न है और वही इस सूत्र का विषय है।
जैनदर्शन के अनुसार जो सत् ( वस्तु ) है वह पूर्ण रूप से केवल कूटस्थनित्य या केवल निरन्वयविनाशी या उसका अमुक भाग कूटस्थनित्य और अमुक भाग परिणामिनित्य अथवा उसका कोई भाग मात्र नित्य और कोई भाग मात्र अनित्य नही हो सकता। इसके अनुसार चेतन और जड़, अमूर्त और मूर्त, सूक्ष्म और स्थूल, सभी सत् पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप से त्रिरूप है।
प्रत्येक वस्तु मे दो अंश होते है । एक अंश तो तीनों कालो मे शाश्वत रहता है और दुसरा अंश सदा अशाश्वत होता है । शाश्वत अंश के कारण प्रत्येक वस्तु ध्रोव्यात्मक ( स्थिर ) और अशाश्वत अंश के कारण उत्पाद-व्ययात्मक ( अस्थिर ) कहलाती है। इन दो अंशों मे से किसी एक की ओर दृष्टि जाने और दूसरे की ओर न जाने से वस्तु केवल स्थिररूप या केवल अस्थिररूप प्रतीत होती है । परन्तु दोनो अंशो पर दृष्टि डालने से ही वस्तु का पूर्ण और यथार्थ स्वरूप
१. वेदान्त-ओपनिषदिक शा करमत । २. बौद्ध । ३. सांख्य । ४. न्याय, वैशेषिक ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org