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तत्त्वार्थसूत्र
[५. २३-२४
पुद्गल के असाधारण पर्याय स्पर्शरसगन्धवर्णवन्तः पुद्गलाः । २३ । शब्दबन्धसौम्यस्थौल्यसंस्थानभेदतमश्छायाऽऽतपोद्द्योतवन्तश्च । २४ । पुद्गल स्पर्श, रस, गन्ध और वर्णवाले होते हैं।
वे शब्द, बन्ध, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व, सस्थान, भेद, अन्धकार, छाया, आतप और उद्योतवाले भी होते है।
बौद्ध दर्शन में पुद्गल शब्द का व्यवहार जीव के अर्थ मे किया जाता है तथा वैशेषिक आदि दर्शनो मे पृथ्वी आदि मूर्त द्रव्यो को समान रूप से स्पर्श, रस आदि चतुर्गुण युक्त नही माना गया है किन्तु पृथ्वी को चतुर्गुण, जल को गन्धरहित त्रिगुण, तेज को गन्ध-रसरहित द्विगुण और वायु को मात्र स्पर्शगुण युक्त माना गया है। इसी तरह उन्होने मन मे स्पर्श आदि चारों गुण नही माने है । इस प्रकार बौद्ध आदि दर्शनों से मतभेद दर्शाना प्रस्तुत सूत्र का उद्देश्य है। इस सूत्र द्वारा यह प्रकट किया गया है कि जैन दर्शन मे जीव और पुद्गल तत्त्व भिन्न है । इसीलिए पुद्गल शब्द का प्रयोग जीव तत्त्व के लिए नही होता। इसी
मैने यहाँ इसका उल्लेख किया है। विशिष्ट अभ्यासी अविक अन्वेषण करें । स्व० बरैयाजी जैन तत्त्वज्ञान के असाधारण ज्ञाता थे।
ऊपर अगुरुलघु गुण के लिए दी गई युक्ति के समान ही एक युक्ति जैन परम्परा मे मान्य धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय के समर्थन मे दी जाती है। वह तुलनात्मक दृष्टि से जानने योग्य है । जड और चेतन गतिशील होने के कारण आकाश मे चाहे जहाँ न चले जाय इसके लिए उक्त दोनो काय नियामक रूप से माने गए है और कहा गया है कि इनके कारण गतिशील द्रव्यो की गतिस्थिति लोकक्षेत्र तक मर्यादित रहती है। जिस प्रकार ये दोनो काय गतिस्थिति के नियामक माने गए है उसी प्रकार अगुरुलघु गुण को मानना चाहिए।
गतिस्थिति की मर्यादा के लिए गतिस्थितिशील पदार्थी का स्वभाव ही माना जाय या आकाश का ऐसा रत्रभाव माना जाय और उक्त दोनो कायो को न माने तो क्या असंगति है ? ऐसा प्रश्न सहज उठता है । परन्तु यह विषय अहेतुवाद का होने से इसमे केवल सिद्ध का समर्थन करने की बात है। यह विषय हेतुवाद या तर्कवाद का नहीं है कि केवल तर्क से इन कायो को स्वीकार या अस्वीकार किया जाय। अगुरुलघु गुण के समर्थन के विषय मे भी मुख्यरूप से अहेतुवाद का ही आश्रय लेना पडता है। हेतुवाद अन्त मे अहेतुवाद की पुष्टि के लिए ही है, यह स्वीकार किये बिना नहीं चलता। इस प्रकार सब दर्शनो मे कुछ विषय हेतुवाद और अहेतुवाद की मर्यादा मे आ जाते है।
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