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तत्त्वार्थसूत्र
[५. २१-२२
मनोवर्गणा के जो स्कन्ध गुणदोषविवेचन, स्मरण आदि कार्याभिमुख आत्मा के अनुग्राहक अर्थात् सामर्थ्य के उत्तेजक होते हैं वे द्रव्यमन हैं । इसी प्रकार आत्मा द्वारा उदर से बाहर निकाला जानेवाला निःश्वासवायु ( प्राण ) और उदर के भीतर पहुँचाया जानेवाला उच्छ्वासवायु ( अपान ) ये दोनों पौद्गलिक हैं और जीवनप्रद होने से आत्मा के अनुग्रहकारी हैं।
भाषा, मन, प्राण और अपान इन सबका व्याघात और अभिभव देखने में आता है । इसलिए वे शरीर की भाँति पोद्गलिक ही हैं।
जीव का प्रीतिरूप परिणाम सुख है, जो सातावेदनीय कर्मरूप अन्तरंग कारण और द्रव्य, क्षेत्र आदि बाह्य कारणों से उत्पन्न होता है। परिताप ही दुःख है, जो असातावेदनीय कर्मरूप अन्तरंग कारण और वन्य आदि बाह्य निमित्तों से उत्पन्न होता है ।
आयुकर्म के उदय से देहधारी जीव के प्राण और अपान का चलते रहना जीवित ( जीवन ) है और प्राणापान का उच्छेद मरण है। ये सब सुख, दुःख आदि पर्याय जीवों में पुद्गलों के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं । इसलिए वे जीवों के प्रति पौद्गलिक उपकार कहे गए हैं। १९-२० ।
कार्य द्वारा जीव का लक्षण
परस्परोपग्रहो जीवानाम् । २१ । परस्पर के कार्य में निमित्त (सहायक) होना जीवों का उपकार है।
पारस्परिक उपकार करना जीवों का कार्य है। इस सूत्र में इसी का निर्देश है । एक जीव हित-अहित के उपदेश द्वारा दूसरे जीव का उपकार करता है। मालिक पैसे से नौकर का उपकार करता है और नौकर हित या अहित की बात के द्वारा या सेवा करके मालिक का उपकार करता है । आचार्य सत्कर्म का उपदेश करके उसके अनुष्ठान द्वारा शिष्य का उपकार करता है और शिष्य अनुकूल प्रवृत्ति द्वारा आचार्य का उपकार करता है । २१ ।
कार्य द्वारा काल का लक्षण वर्तना परिणामः क्रिया परत्वापरत्वे च कालस्य । २२ । वर्तना, परिणाम, क्रिया और परत्व-अपरत्व ये काल के उपकार हैं।
काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानकर यहाँ उसके उपकार गिमाये गए हैं । अपनेअपने पर्याय की उत्पत्ति में स्वयमेव प्रवर्तमाम धर्म मादि द्रव्यों को निमित्तरूप
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