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५. १९-२० ]
कार्य द्वारा पुद्गल का लक्षण
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तत्त्व धर्मास्तिकाय है । इस तत्त्व को स्वीकार कर लेने पर तुल्य युक्ति से स्थितिमर्यादा के नियामक अधर्मास्तिकाय तत्त्व को भी जैन दर्शन ने स्वीकार कर लिया है।
दिग्द्रव्य के कार्यरूप पूर्व-पश्चिम आदि व्यवहार की उपपत्ति आकाश के द्वारा सम्भव होने से दिग्द्रव्य को आकाश से अलग मानना आवश्यक नही । किंतु धर्म-अधर्म द्रव्यो का कार्य आकाश से सिद्ध नही हो सकता, क्योकि आकाश को गति और स्थिति का नियामक मानने पर वह अनन्त और अखंड होने से जड तथा चेतन द्रव्यो को अपने मे सर्वत्र गति व स्थिति करने से रोक नही सकेगा और इस तरह नियत दृश्यादृश्य विश्व के संस्थान की अनुपपत्ति बनी ही रहेगी। इसलिए धर्म-अधर्म द्रव्यो को आकाश से भिन्न एवं स्वतन्त्र मानना न्यायसंगत है। जब जड़ और चेतन गतिशील है तब मर्यादित आकाशक्षेत्र मे नियामक के बिना उनकी गति अपने स्वभाववश नही मानी जा सकती । इसलिए धर्म-अधर्म द्रव्यों का अस्तित्व युक्तिसिद्ध है । १७-१८ ।
___ कार्य द्वारा पुद्गल का लक्षण शरीरवाङ्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम् । १९ ।
सुखदुःखजीवितमरणोपग्रहाश्च । २० । शरीर, वाणी, मन, निःश्वास और उच्छ्वास ये पुद्गलों के उपकार ( कार्य ) हैं।
सुख, दुःख, जीवन और मरण भी पुद्गलो के उपकार है।
अनेक पौद्गलिक कार्यो मे से कुछ का यहाँ निर्देश किया गया है, जो जीवों पर अनुग्रह-निग्रह करते है। औदारिक आदि सब शरीर पौद्गलिक ही है । कार्मणशरीर अतीन्द्रिय है, किन्तु वह औदारिक आदि मूर्त द्रव्य के सम्बन्ध से सुखदुःखादि विपाक देता है, जैसे जलादि के सम्बन्ध से धान । इसलिए वह भी पौद्गलिक ही है।
भाषा दो प्रकार की है-भावभाषा और द्रव्यभाषा । भावभाषा तो वीर्यान्तराय, मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से तथा अंगोपांग नामकर्म के उदय से प्राप्त होनेवाली एक विशिष्ट शक्ति है जो पुद्गल-सापेक्ष होने से पौद्गलिक है और ऐसी शक्तिमान् आत्मा से प्रेरित होकर वचनरूप मे परिणत होनेवाले भाषावर्गणा के स्कन्ध ही द्रव्यभाषा है।
लब्ध तथा उपयोगरूष भावमन पुद्गलाबलम्बी होने से पौद्गलिक है । ज्ञानावरण तथा वीर्यान्तराय के क्षयोपशम से और अंगोपांग नामकर्म के उदय से
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