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५. १७-१८ ]
कार्य द्वारा धर्म, अधर्म और आकाश के लक्षण
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के एक प्रदेश पर या दो, चार, पाँच आदि प्रदेशों पर क्यो नही समा सकला ? इसी प्रकार यदि उसका स्वभाव विकासशील है तो वह सम्पूर्ण लोकाकाश की तरह अलोकाकाश को भी व्याप्त क्यो नहो करता ? इसका उत्तर यह है कि संकोच की मर्यादा कार्मणशरीर पर निर्भर है । कार्मणशरीर तो किसी भी अंगुलासंख्यात भाग से छोटा हो ही नही सकता, इसलिए जीव का संकोच-कार्य भी वही तक परिमित रहता है। विकास की मर्यादा भी लोकाकाश तक मानी गई है। इसके दो कारण है । पहला तो यह कि जीव के प्रदेश उतने ही है जितने लोकाकाश के है । अधिकसे-अधिक विकास-दशा मे जीव का एक प्रदेश आकाश के एक ही प्रदेश को व्याप्त कर सकता है, दो या अधिक को नही । इसलिए सर्वोत्कृष्ट विकासदशा मे भी वह लोकाकाश के बाहर के भाग को व्याप्त नही करता । दूसरा कारण यह है कि विकास करना गति का कार्य है और गति धर्मास्ति काय के बिना नहीं हो सकती, अत. लोकाकाश के बाहर जीव के फैलने का कोई कारण ही नही है ।
प्रश्न-असंख्यात प्रदेशवाले लोकाकाश मे शरीरधारी अनन्त जीव कैसे समा सकते है ?
उत्तर--सूक्ष्मभाव में परिणत होने से निगोद-शरीर से व्याप्त एक ही आकाशक्षेत्र मे साधारणशरीरी अनन्त जीव एक साथ रहते है और मनुष्य आदि के एक औदारिक शरीर के ऊपर तथा अन्दर अनेक संमूछिम जीवों की स्थिति देखने मे आती है । इसलिए लोकाकाश मे अनन्तानन्त जीवो का समावेश असंमत नही है ।
यद्यपि पुद्गल द्रव्य अनन्तानन्त और मूर्त है, तथापि उनका लोकाकाश मे समा जाने का कारण यह है कि पुद्गलो मे सूक्ष्म रूप से परिणत होने की शक्ति है । जब ऐसा परिणमन होता है तब एक ही क्षेत्र मे एक-दूसरे को व्याघात पहुँचाए बिना अनन्तानन्त परमाणु और अनन्तानन्त स्कन्ध स्थान पा सकते है, जैसे एक ही स्थान मे हजारों दोपको का प्रकाश व्याधात के बिना समा जाता है । मूर्त होने पर भी पुद्गल द्रव्य व्याघातशील तभी होता है जब वह स्थूलभाव मे परिणत हो । सूक्ष्मत्वपरिणामदशा मे वह न किसी को व्याघात पहुंचाता है और न स्वयं किसी से व्याघातित होता है । १२-१६ ।
कार्य द्वारा धर्म, अधर्म और आकाश के लक्षण गतिस्थित्युपग्रहो' धर्माधर्मयोरुपकारः । १७ ।
आकाशस्यावगाहः । १८ । १. 'गतिस्थित्युपग्रहो' पाठ भी कही-कही मिलता है, तथापि भाष्य के अनुसार 'गतिस्थित्युपग्रहो' पाठ अधिक संगत प्रतीत होता है। दिगम्बर परम्परा मे तो 'गतिस्थित्युपग्रहौ' पाठ ही निर्विवाद रूप में प्रचलित है ।
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