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सस्वार्थसूत्र
[५. १२-१६
से-छोटा आधारक्षेत्र अंगुलासंख्येय भाग परिमाण होता है, जो समन लोकाकाश का असंख्यातवाँ भाग है। उसी जीव का कालान्तर में अथवा उसी समय जीवान्तर का कुछ बडा आधारक्षेत्र उक्त भाग से दुगुना भी होता है। इसी प्रकार उसी जीव का या जीवान्तर का आधारक्षेत्र उक्त भाग से तिगुना, चौगुना, पाँचगुना आदि क्रमशः बढ़ते-बढते कभी असख्यातगुना अर्थात् सर्व लोकाकाश हो सकता है । एक जीव का आधारक्षेत्र सर्व लोकाकाश तभी सम्भव है जब वह जीव केवलिसमुद्घात की स्थिति मे हो। जीव के परिमाण की न्यूनाधिकता के अनुसार उसके आधारक्षेत्र के परिमाण की न्यूनाधिकता एक जीव की अपेक्षा से कही गई है। सर्व जीवराशि की अपेक्षा से तो जीव तत्त्व का आधारक्षेत्र सम्पूर्ण लोकाकाश ही है।
अब प्रश्न यह उठता है कि एक जीव द्रव्य के परिमाण मे कालभेदगत जो न्यूनाधिकता है, या तुल्य प्रदेशवाले भिन्न-भिन्न जीवों के परिमाण मे एक ही समय मे जो न्यूनाधिकता है, उसका कारण क्या है ? यहाँ इसका उत्तर यह है कि अनादि काल से जीव के साथ लगा हुआ कार्मणशरीर जो कि अनन्तानन्त अणुप्रचयरूप होता है, उसके सम्बन्ध से एक ही जीव के परिमाण मे या नाना जीवों के परिमाण मे विविधता आती है। कार्मणशरीर सदा एक-सा नही रहता। उसके सम्बन्ध से औदारिक आदि जो अन्य शरीर प्राप्त होते है वे भी कार्मण के अनुसार छोटे-बड़े होते है । जीव द्रव्य वस्तुतः है तो अमूर्त, पर वह शरीरसम्बन्ध के कारण मूर्तवत् बन जाता है। इसलिए जब जितना बड़ा शरीर उसे प्राप्त होता है । तब उसका परिमाण उतना हो जाता है ।
धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों की भांति जीव द्रव्य भी अमूर्त है, फिर एक का परिमाण नही घटता-बढता और दूसरे का घटता-बढता है ऐसा क्यो ? इसका कारण स्वभावभेद के अतिरिक्त और कुछ नही है । जीव तन्ध का स्वभाव निमित्त मिलने पर प्रदीप की तरह सकोच और विकास को प्राप्त करना है, जैसे खुले आकाश मे रखे हुए प्रदीप के प्रकाश का कोई एक परिमाण होता है, पर कोठरी मे उसका प्रकाश कोठरी भर ही बन जाता है, कुण्डे के नीचे रखने पर वह कुण्डे के नीचे के भाग को ही प्रकाशित करता है, लोटे के नीचे उसका प्रकाश उतना ही हो जाता है। इसी प्रकार जीव द्रव्य भी संकोच-विकासशील है । वह जब जितना छोटा या बडा शरीर धारण करता है तब उस शरीर के परिमाणानुसार उसके परिमाण में संकोच-विकास हो जाता है।
यहाँ प्रश्न उठता है कि जीव यदि संकोचस्वभाव के कारण छोटा होता है तो वह लोकाकाश के प्रदेशरूप असंख्यातवें भाग से छोटे भाग मे अर्थात् आकाश
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