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तत्त्वार्थ सूत्र
[ ५.१७-१८
गति और स्थिति में निमित्त बनना क्रमश धर्म और अधर्म द्रव्यों का कार्य है ।
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अवकाश में निमित्त होना आकाश का कार्य है ।
धर्म, अधर्म और आकाश तीनों द्रव्य अमूर्त है अतः इन्द्रियगम्य नही है । इसलिए इनकी सिद्धि लौकिक प्रत्यक्ष द्वारा सम्भव नही | आगम प्रमाण से इनका अस्तित्व मान्य है, फिर भी आगम-पोषक ऐसी युक्ति भी है जो उक्त द्रव्यों के अस्तित्व को सिद्ध करती है । जगत् में गतिशील और गतिपूर्वक स्थितिशील जीव और पुद्गल ये दो पदार्थ है । गति और स्थिति इन दोनो द्रव्यों के परिणाम व कार्य है और उन्ही से पैदा होते है अर्थात् गति और स्थिति के उपादान कारण जीव और पुद्गल ही है, तो भी कार्य की उत्पत्ति में अपेक्षित निमित्त कारण तो उपादान कारण से भिन्न ही सम्भव है । इसीलिए जीव एवं पुद्गल की गति में निमित्त रूप से धर्मास्तिकाय की और स्थिति में निमित्त रूप से अधर्मास्तिकाय की सिद्धि हो जाती है । इसी अभिप्राय से शास्त्र मे धर्मास्तिकाय का लक्षण 'गतिशील पदार्थो की गति में निमित्त होना' कहा गया और अधर्मास्तिकाय का लक्षण 'स्थिति में निमित्त होना ।
धर्म, अधर्म, जीव और पुद्गल ये चारों द्रव्य कही न कही स्थित है अर्थात् आधेय बनना या अवकाश प्राप्त करना उनका कार्य है । पर अपने में अवकाश ( स्थान ) देना आकाश का कार्य है । इसीलिए आकाश का लक्षण अवगाह प्रदान करना माना गया है ।
प्रश्न – साख्य, न्याय, वैशेषिक आदि दर्शनो मे आकाश द्रव्य तो माना गया है परन्तु धर्म और अधर्म द्रव्यो को तो अन्य किसी ने नही माना, फिर जैन दर्शन में ही क्यो स्वीकार किया गया है ?
उत्तर- जड़ और चेतन द्रव्य की गतिशीलता तो अनुभव सिद्ध है जो दृश्यादृश्य विश्व के विशिष्ट अग है । कोई नियामक तत्त्व न रहे तो वे द्रव्य अपनी सहज गतिशीलता से अनन्त आकाश मे कही भी चले जा सकते है । सचमुच यदि वे अनन्त आकाश मे चले हो जायें तो इस दृश्यादृश्य विश्व का नियत संस्थान कभी सामान्य रूप से एक-सा दिखाई नही देगा, क्योकि इकाईरूप मे अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव अनन्त परिमाण विस्तृत आकाश क्षेत्र मे बेरोकटोक सचार के कारण इस तरह पृथक् हो जायेंगे जिनका पुनः मिलना और नियत सृष्टिरूप मे दिखाई देना असम्भव नहीं तो दुष्कर अवश्य हो जायगा । यही कारण है कि उक्त गतिशील द्रव्यों की गतिमर्यादा के नियामक तत्त्व को जैन दर्शन ने स्वीकार किया है । यही
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