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तत्त्वार्थसूत्र
[५. १२-१६
पुद्गलों की स्थिति लोकाकाश के एक प्रदेश आदि में विकल्प ( अनिश्चित रूप ) से है ।
जीवों की स्थिति लोक के असख्यातवे भाग आदि में होती है।
क्योकि प्रदीप की भाँति उनके प्रदेशों का सकोच और विस्तार होता है।
जगत् पाँच अस्तिकायरूप है, इसलिए प्रश्न उठता है कि इन अस्तिकायों का आधार ( स्थितिक्षेत्र ) क्या है ? उनका आधार अन्य कोई द्रव्य है अथवा पाँचों मे से ही कोई एक द्रव्य है ? इस प्रश्न का उत्तर यहाँ यह दिया गया है कि आकाश ही आधार है और शेष सब द्रव्य आधेय है। यह उत्तर व्यवहारदृष्टि से है, निश्चयदृष्टि से तो सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठ ( अपने-अपने स्वरूप मे स्थित ) है, एक द्रव्य दूसरे द्रव्य मे तात्त्विक दृष्टि से नही रहता । प्रश्न हो सकता है कि जब धर्म आदि चार द्रव्यों का आधार व्यवहारदृष्टि से आकाश माना गया है तो आकाश का आधार क्या है ? इसका उत्तर यही है कि आकाश का अन्य कोई आधार नहीं है, क्योंकि उससे बड़ा या उसके तुल्य परिमाण का अन्य कोई तत्त्व नहीं है । इस प्रकार व्यवहार एवं निश्चय दोनों दृष्टियों से आकाश स्वप्रतिष्ठ ही है । आकाश को अन्य द्रव्यों का आधार इसीलिए कहा गया है कि वह सब द्रव्यों से महान् है ।
आधेयभूत धर्म आदि चार द्रव्य भी समग्र आकाश मे नही रहते । वे आकाश के एक परिमित भाग में ही स्थित है और आकाश का यह भाग 'लोक' कहलाता है। लोक का अर्थ है पांच अस्तिकाय । इस भाग के बाहर चारो ओर अनन्त आकाश फैला है। उसमें अन्य द्रव्यों की स्थिति न होने से वह भाग अलोकाकाश कहलाता है। यहाँ अस्तिकायो के आधाराधेय सम्बन्ध का विचार लोकाकाश को लेकर ही किया गया है।
धर्म और अधर्म ये दोनों अस्तिकाय ऐसे अखण्ड स्कन्ध है जो सम्पूर्ण लोकाकाश में स्थित है । वस्तुतः अखण्ड आकाश के लोक और अलोक भागो की कल्पना भी धर्म-अधर्म द्रव्य-सम्बन्ध के कारण ही है । जहाँ धर्म-अधर्म द्रव्यो का सम्बन्ध न हो वह अलोक और जहाँ तक सम्बन्ध हो वह लोक ।
पुद्गल द्रव्य का आधार सामान्यतः लोकाकाश ही नियत है, तथापि विशेष रूप से भिन्न-भिन्न पुद्गलों के आधारक्षेत्र के परिमाण मे अन्तर पडता है। पुद्गल द्रव्य धर्म-अधर्म द्रव्य की तरह एक इकाई तो है नही कि उसके एकरूप आधारक्षेत्र की सम्भावना मानी जा सके । भिन्न-भिन्न इकाई होते हुए भी पुद्गलों के परिमाण मे विविधता है, एकरूपता नही है। इसीलिए यहाँ उसके आधार
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