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तत्त्वार्थसूत्र
कुछ अधिक दो सागरोपम की है ।
पहले-पहले की उत्कृष्ट स्थिति आगे-आगे की जघन्य स्थिति है ।
सौधर्मादि कल्पो की जघन्य स्थिति क्रमशः इस प्रकार है— पहले स्वर्ग में एक पल्योपम, दूसरे में एक पल्योपम से कुछ अधिक, तीसरे में दो सागरोपम, चौथे में दो सागरोपम से कुछ अधिक, पाँचवें से आगे-आगे सभी देवलोकों में जघन्य स्थिति वही है जो अपनी-अपनी अपेक्षा पूर्व-पूर्व के देवलोकों में उत्कृष्ट स्थिति है । इसके अनुसार चौथे देवलोक की कुछ अधिक सात सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति ही पाँचवें देवलोक मे जघन्य स्थिति है; पाँचवें की दस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति छठे में जघन्य है, छठे की चौदह सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति सातवें में जघन्य है, सातवें की सत्रह सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति, आठवें में जघन्य है, आठवें की अठारह सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति नवें - दसवें में जघन्य है, नवें -दसर्वे की बीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति ग्यारहवें - बारहवे में जघन्य है, ग्यारहवें - बारहवें की बाईस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति प्रथम ग्रैवेयक में जघन्य है । इसी प्रकार नीचे-नीचे के ग्रैवेयक की उत्कृष्ट स्थिति ऊपर-ऊपर के ग्रैवेयक में जघन्य है । इस क्रम से नवे ग्रैवेयक की जघन्य स्थिति तीस सागरोपम है । चार अनुत्तर विमानों में जघन्य स्थिति इकतीस सागरोपम है । सर्वार्थसिद्ध की उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति में कोई अन्तर नही है, वहाँ तैतीस सागरोपम की स्थिति है । ३९-४२ ।
नारकों की जघन्य स्थिति
[ ४. ४३–४४
नारकाणां च द्वितीयादिषु । ४३ ।
दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् । ४४ ।
नारकों की दूसरी आदि भूमियों में पूर्व-पूर्व की उत्कृष्ट स्थिति ही अनन्तर- अनन्तर की जघन्य स्थिति है ।
पहली भूमि मे जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है ।
सूत्र ४२ मे देवो की जघन्य स्थिति का जो क्रम है वही क्रम दूसरी से लेकर सातवी भूमि तक के नारकों को जघन्य स्थिति का है । इसके अनुसार पहली भूमि की एक सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति दूसरी की जघन्य स्थिति है । दूसरी की तीन सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति तीसरी की जघन्य है । तीसरी की सात सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति चौथी की जघन्य है । चौथी की दस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति पाँचवी की जघन्य है । पाँचदी की सत्रह सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति छठी की जघन्य है । छठी की बाईस सागरोपम उत्कृष्ट स्थिति सातवी की जघन्य है । पहली भूमि मे नारकों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की है । ४३-४४ ।
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