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तत्त्वार्थसूत्र
[ ४. ३०-३८
___ मनुष्यों और तिर्यञ्चों की जघन्य और उत्कृष्ट आयु बतलाई गई है । देवों और नारकों की आयु बतलाना शेष है, जो इस अध्याय की समाप्ति तक वणित है। २९ ।
भवनपतिनिकाय की उत्कृष्ट स्थिति भवनेषु दक्षिणार्धाधिपतीनां पल्योपममध्यर्धम् । ३० । शेषाणां पादोने । ३१ । असुरेन्द्रयोः सागरोपममधिकं च । ३२ । भवनों में दक्षिणार्ध के इन्द्रों की स्थिति डेढ़ पल्योपम है। शेष इन्द्रों की स्थिति पौने दो पल्योपम है।
दो असुरेन्द्रों की स्थिति क्रमशः सागरोपम और कुछ अधिक सागरोपम है।
यहाँ भवनपतिनिकाय की उत्कृष्ट स्थिति बतलाई गई है, क्योकि जघन्यस्थिति का वर्णन आगे सूत्र ४५ मे आया है। भवनपतिनिकाय के असुरकुमार, नागकुमार आदि दस भेद है । प्रत्येक वर्ग के दक्षिणार्ध के अधिपति और उत्तरार्ध के अधिपति के रूप मे दो-दो इन्द्र है। उनमे से दक्षिण और उत्तर के दो असुरेन्द्रो की उत्कृष्ट स्थिति इस प्रकार है-दक्षिणार्ध के अधिपति चमर नामक असुरेन्द्र की स्थिति एक सागरोपम और उत्तरार्ध के अधिपति बलि नामक असुरेन्द्र की स्थिति एक सागरोपम से कुछ अधिक है । असुरकुमार को छोड़कर नागकुमार आदि शेष नौ प्रकार के भवनपति देवो के दक्षिणार्ध के धरण आदि नौ इन्द्रों की स्थिति डेढ़ पल्योपम और उत्तरार्ध के भूतानन्द आदि नौ इन्द्रों की स्थिति पौने दो पल्योपम है । ३०-३२ ।
वैमानिकों की उत्कृष्ट स्थिति सौधर्मादिषु यथाक्रमम् । ३३ । सागरोपमे । ३४। अधिके च । ३५ । सप्त सानत्कुमारे । ३६ ॥ विशेषत्रिसप्तदशैकादशत्रयोदशपञ्चदशभिरधिकानि च । ३७ । आरणाच्युतादूर्ध्वमेकैकेन नवसु प्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थसिद्धे च । ३८॥
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