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तत्त्वार्थसूत्र
[ ४. २५-२६
क्योकि उनमें इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिश आदि की विभाग-कल्पना नही है; वे सभी समान होने से अहमिन्द्र है । २४ ।
लोकान्तिक देव ब्रह्मलोकालया लोकान्तिकाः । २५ । सारस्वतादित्यवह्नयरुणगर्दतोयतुषिताव्याबाधमरुतोऽरिष्टाश्च ।२६। ब्रह्मलोक ही लोकान्तिक देवों का आलय (निवासस्थान ) है ।
सारस्वत, आदित्य, वह्नि, अरुण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, मरुत और अरिष्ट ये लोकान्तिक है ।
लोकान्तिक देव विषयरति से परे होने से देवर्षि कहलाते है, आपस में छोटे-बडे न होने के कारण सभी स्वतन्त्र है और तीर्थङ्कर के निष्क्रमण ( गृहत्याग ) के समय उनके समक्ष उपस्थित होकर 'बुज्झह बुज्झह' शब्द द्वारा प्रतिबोधन के रूप में अपने आचार का पालन करते है। ये ब्रह्मलोक नामक पाँचवें स्वर्ग के ही चारों ओर दिशाओ-विदिशाओं में रहते है, अन्यत्र कहीं नहीं रहते । ये सभी वहाँ से च्युत होकर मनुष्य-जन्म धारण कर मोक्ष प्राप्त करते है ।
प्रत्येक दिशा, प्रत्येक विदिशा और मध्यभाग में एक-एक जाति के बसने के कारण लोकान्तिकों की कुल नौ जातियाँ है, जैसे पूर्वोत्तर अर्थात् ईशानकोण में सारस्वत, पूर्व मे आदित्य, पूर्वदक्षिण ( अग्निकोण ) मे वह्नि, दक्षिण मे अरुण, दक्षिणपश्चिम (नैऋत्यकोण ) मे गर्दतोय, पश्चिम मे तुषित, पश्चिमोत्तर ( वायव्यकोण ) में अव्याबाध, उत्तर मे मरुत और बीच मे अरिष्ट। इनके सारस्वत आदि नाम विमानों के नाम के आधार पर ही प्रसिद्ध है। हाँ, इतनी विशेषता और है कि इन दो सूत्रों के मूल भाष्य में लोकान्तिक देवो के आठ ही भेद निर्दिष्ट है, नौ नही । दिगम्बर संप्रदाय के सूत्रपाठ मे भी आठ की संख्या ही उपलब्ध
१. रायल एशियाटिक सोसायटी की मुद्रित पुस्तक मे 'अरिष्टाश्च' इस अंश को निश्चित रूप से सूत्र में न रखकर कोष्ठक मे रखा गया है, परन्तु मनसुख भगुभाई की मुद्गित पुस्तक मे यही अंश 'रिष्टाश्च' पाठ के रूप में सूत्रगत ही छपा है। यद्यपि वेताम्बर संप्रदाय के मूल सूत्र में 'ऽरिष्टाश्च' पाठ है तथापि इस सत्र के भाष्य की टीका मे 'सारिणोपात्ताः रिष्टविमानप्रस्तारवतिभिः' आदि का उल्लेख है । इससे 'अरिष्ट' के स्थान पर 'रिष्ट' होने का भी तर्क हो सकता है। परन्तु दिगम्बर संप्रदाय मे इस सत्र का अन्तिम अंश 'ऽव्याबाधारिष्टाश्च' पाठ के रूप में मिलता है । इससे यहाँ स्पष्टतः 'अरिष्ट' ही निष्पन्न होता है, 'रिष्ट' नहीं, साथ ही 'मरुत' का भी विधान नहीं है।
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