________________
४. २३-२४ ]
वैमानिकों में लेश्या-कल्पों की परिगणना
१०७
३. वेदना-सामान्यतः देवों के साता ( सुख-वेदना ) ही होती है। कभी असाता ( दुःख-वेदना ) हो जाय तो वह अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल तक नही रहती । साता-वेदना भी लगातार छ: महीने तक एक-सी रहकर बदल जाती है ।
४. उपपात-उपपात अर्थात् उत्पत्तिस्थान की योग्यता। पर अर्थात् जैनेतरलिङ्गिक मिथ्यात्वी बारहवें स्वर्ग तक ही उत्पन्न हो सकते है । स्व अर्थात् जैनलिङ्गिक मिथ्यात्वी ग्रेवेयक तक जा सकते है । सम्यग्दृष्टि पहले स्वर्ग से सर्वार्थसिद्ध तक कहीं भी जा सकते है, परन्तु चतुर्दश पूर्वधारी संयत पाँचवें स्वर्ग से नीचे उत्पन्न नहीं होते।
५ अनुभाव-अनुभाव अर्थात् लोकस्वभाव ( जगद्धर्म )। इसी के कारण सब विमान तथा सिद्धशिला आदि आकाश में निराधार अवस्थित है।
अरिहन्त भगवान् के जन्माभिषेक आदि प्रसंगों पर देवों के आसन का कम्पित होना भी लोकानुभाव का ही कार्य है । आसनकम्प के अनन्तर अवधिज्ञान के उपयोग से तीर्थङ्कर की महिमा को जानकर कुछ देव उनके निकट पहुँचकर उनकी स्तुति, वन्दना, उपासना आदि करके आत्मकल्याण करते है। कुछ देव अपने ही स्थान पर प्रत्युत्थान, अञ्जलिकर्म, प्रणिपात, नमस्कार, उपहार आदि द्वारा तीर्थङ्कर की अर्चा करते है। यह भी लोकानुभाव का ही कार्य है । २२ ।
वैमानिकों में लेश्या पीतपद्मशुक्ललेश्या द्वित्रिशेषेषु । २३ । दो, तीन और शेष स्वर्गों में क्रमशः पीत, पद्म और शुक्ल लेश्यावाले देव हैं।
पहले दो स्वर्गों के देवों में पीत ( तेजः ) लेश्या होती है। तीसरे से पांचवें स्वर्ग तक के देवों में पद्मलेश्या और छठे से सर्वार्थसिद्ध तक के देवों मे शुक्ललेश्या होती है। यह विधान शरीरवर्णरूप द्रव्यलेश्या के विषय मे है, क्योंकि अध्यवसायरूप छहों भावलेश्याएँ तो सब देवों में होती है । २३ ।
_कल्पों की परिगणना
प्रागद्मवेयकेभ्यः कल्पाः। २४ । ग्रेवेयकों से पहले कल्प हैं ।
जिनमें इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिश आदि रूप में देवों के विभाग की कल्पना है वे कल्प कहलाते है । ऐसे कल्प बारह है जो ग्रैवेयक के पहले तक अर्थात् सौधर्म से अच्युत तक है । ग्रैवेयक से लेकर ऊपर के सभी देवलोक कल्पातीत हैं,
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org