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तत्त्वार्थसूत्र
[ ५. २-६
उक्त पाँच में से आकाश तक के द्रव्य एक-एक हैं। तथा निष्क्रिय है।
धर्मास्तिकाय आदि पाँचों द्रव्य नित्य है और अपने सामान्य तथा विशेष स्वरूप से कदापि च्युत नही होते । पाँचो स्थिर भी है, क्योकि उनकी संख्या मे न्यूनाधिकता नही होती, परन्तु अरूपी तो धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और जीवास्तिकाय ये चार ही द्रव्य है । पुद्गल द्रव्य अरूपी नहीं है। सारांश यह है कि नित्यत्व तथा अवस्थितत्व दोनो ही पाँचो द्रव्यों के साधर्म्य है, परन्तु अरूपित्व पुद्गल के अतिरिक्त शेष चार द्रव्यो का साधर्म्य है ।
प्रश्न-नित्यत्व और अवस्थितत्व के अर्थ मे क्या अन्तर है ?
उत्तर-अपने सामान्य तथा विशेष स्वरूप से च्युत न होना नित्यत्व है और अपने स्वरूप मे स्थिर रहते हुए भी अन्य तत्त्व के स्वरूप को प्राप्त न करना अवस्थितत्व है। जैसे जीव तत्त्व अपने द्रव्यात्मक सामान्य रूप और चेतनात्मक विशेष रूप को कभी नही छोडता, यह उसका नित्यत्व है और अपने इस स्वरूप को न छोडते हुए भी अजीव तत्त्व के स्वरूप को प्राप्त नहीं करता, यह उसका अवस्थितत्व है। सारांश यह है कि स्व-स्वरूप को न त्यागना और पर-स्वरूप को प्राप्त न करना ये दो अश (धर्म) सभी द्रव्यों मे समान है । पहला अंश नित्यत्व और दूसरा अंश अवस्थितत्व कहलाता है । द्रव्यों के नित्यत्वकथन से जगत् की शाश्वतता प्रकट की जाती है और अवस्थितत्वकथन से उनका पारस्परिक असाकर्य प्रकट किया जाता है अर्थात् वे सब परिवर्तनशील होते हुए भी अपने स्वरूप मे सदा स्थित है और एक साथ रहते हुए भी एक-दूसरे के स्वभाव ( लक्षण ) से अस्पृष्ट है । इस प्रकार यह जगत् अनादि-निधन भी है और जगत् के मूल तत्त्वों की संख्या भी समान रहती है।
प्रश्न-जब धर्मास्तिकाय आदि अजीव द्रव्य और तत्त्व है तब उनका कोईन-कोई स्वरूप अवश्य मानना पड़ेगा, फिर उन्हे अरूपी क्यों कहा गया ? ।
उत्तर-यहाँ अरूपी कहने का आशय स्वरूपनिषेध नही है, स्त्ररूप तो धर्मास्तिकाय आदि तत्त्वो का भी होता ही है। उनका कोई स्वरूप न हो तो वे घोडे के सीग की तरह वस्तु ही सिद्ध न हों। यहाँ अरूपित्व के कथन का तात्पर्य रूप का निषेध है । यहाँ रूप का अर्थ मूर्ति है । रूप आदि संस्थान-परिणाम को अथवा रूप, रस, गन्ध और स्पर्श के समुदाय को मूर्ति कहते है जिसका धर्मास्तिकाय आदि चार तत्त्वों में अभाव होता है। यही बात 'अरूपी' पद द्वारा कही गई है। ३।
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