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प्रदेशो की संख्या
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रूप, मूर्तत्व, मूर्ति ये सब शब्द समानार्थक है । रूप, रस आदि इन्द्रियग्राह्य गुण ही मूर्ति कहे जाते है । पुद्गलो के गुण इन्द्रियग्राह्य है इसलिए पुद्गल ही मूर्त ( रूपी) है । पुद्गल के अतिरिक्त अन्य द्रव्य मूर्त नही है, क्योकि वे इन्द्रियों द्वारा गृहीत नही होते । अतः रूपित्व गुण पुद्गल को छोड़कर धर्मास्तिकाय आदि चार तत्त्वो का वैधर्म्य है।
अतीन्द्रिय होने से परमाणु आदि अनेक सूक्ष्म द्रव्य और उनके गुण इन्द्रियग्राह्य नही है, फिर भी विशिष्ट परिणामरूप अवस्था-विशेष में वे इन्द्रियो द्वारा गृहीत होने की योग्यता रखते है, अतः अतीन्द्रिय होते हुए भी वे रूपी ( मूर्त ) ही है। धर्मास्तिकाय आदि चार अरूपी द्रव्यों मे तो इन्द्रिय-विषय बनने की योग्यता ही नही है । अतीन्द्रिय पुद्गल और अतीन्द्रिय धर्मास्तिकायादि द्रव्यों मे यही अन्तर है । ४ । ___ इन पाँच द्रव्यों मे से आकाश तक के तीन द्रव्य अर्थात् धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय एक-एक इकाईरूप है। इनके दो या दो से अधिक विभाग नही है।
इसी प्रकार तीनों निष्क्रिय ( क्रियारहित ) है। एक इकाई और निष्क्रियता ये दोनो उक्त तीनों द्रव्यों का साधर्म्य और जीवास्तिकाय तथा पुद्गलास्तिकाय का वैधर्म्य है। जीव और पुद्गल द्रव्य की अनेक इकाइयाँ है और वे क्रियाशील भी है । जैन दर्शन मे आत्म द्रव्य को वेदान्त की भाँति एक इकाईरूप नहीं माना गया और साख्य-वैशेषिक आदि सभी वैदिक दर्शनो की तरह उसे निष्क्रिय भी नही माना गया।
प्रश्न-जैन दर्शन के अनुसार सभी द्रव्यों में पर्यायपरिणमन ( उत्पाद-व्यय) माना जाता है । यह परिणमन क्रियाशील द्रव्यों में ही हो सकता है । धर्मास्तिकाय आदि तीन द्रव्यों को निष्क्रिय मानने पर उनमें पर्यायपरिणमन कैसे घटित हो सकेगा?
उत्तर-यहाँ निष्क्रियत्व से अभिप्राय गतिक्रिया का निषेध है, क्रियामात्र का नही । जैन दर्शन के अनुसार निष्क्रिय द्रव्य का अर्थ 'गतिशून्य द्रव्य' है । गतिशून्य धर्मास्तिकाय आदि द्रव्यों मे भी सदृशपरिणमनरूप क्रिया जैन दर्शन को मान्य
प्रदेशों की संख्या असङ्घय याः प्रदेशा धर्माधर्मयोः । ७। जोवस्य । ८॥
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