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४. ११-२०]
चतुनिकाय के देवों के भेद
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होगा, क्योंकि व्यावहारिक कालविभाग का मुख्य आधार नियत क्रिया मात्र है। ऐसी क्रिया सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिष्कों की गति ही है। यह गति भी ज्योतिष्कों की सर्वत्र नही, केवल मनुष्यलोक में वर्तमान ज्योतिष्कों में ही मिलती है। इसीलिए माना गया है कि काल का विभाग ज्योतिष्कों की विशिष्ट गति पर ही निर्भर है । दिन, रात, पक्ष आदि स्थूल कालविभाग सूर्य आदि ज्योतिष्कों की नियत गति पर अवलम्बित होने के कारण उससे ज्ञात हो सकते है; समय, आवलिका आदि सूक्ष्म कालविभाग उससे ज्ञात नहीं हो सकते । स्थान-विशेष में सूर्य के प्रथम दर्शन से लेकर स्थान-विशेष में सूर्य का जो अदर्शन होता है उस उदय और अस्त के बीच सूर्य की गतिक्रिया से ही दिन का व्यवहार होता है । इसी प्रकार सूर्य के अस्त से उदय तक की गतिक्रिया से रात्रि का व्यवहार होता है। दिन और रात्रि का तीसवाँ भाग मुहूर्त कहलाता है। पन्द्रह दिनरात का पक्ष होता है। दो पक्ष का मास, दो मास की ऋतु, तीन ऋतु का अयन, दो अयन का वर्ष, पाँच वर्ष का युग इत्यादि अनेक प्रकार का लौकिक कालविभाग सूर्य की गतिक्रिया से किया जाता है । जो क्रिया चालू है वह वर्तमानकाल, जो होनेवाली है वह अनागतकाल और जो हो चुकी है वह अतीतकाल है । जो काल गणना में आ सकता है वह संख्येय है, जो गणना मे न आकर केवल उपमान से जाना जाता है वह असंख्येय है, जैसे पल्योपम, सागरोपम आदि और जिसका अन्त नहीं है वह अनन्त' है । १५ ।।
स्थिरज्योतिष्क-मनुष्यलोक से बाहर के सूर्य आदि ज्योतिष्क विमान स्थिर हैं, क्योकि उनके विमान स्वभावतः एक स्थान पर स्थिर रहते है, यत्र-तत्र भ्रमण नही करते । अतः उनकी लेश्या और प्रकाश भी एक रूप में स्थिर है, वहाँ राहु आदि की छाया न पड़ने से ज्योतिष्कों का स्वाभाविक पीतवर्ण ज्यों का त्यों बना रहता है और उदय-अस्त न होने से उनका लक्ष योजन का प्रकाश भी एक-सा स्थिर रहता है । १६ ।
वैमानिक देव-चतुर्थ निकाय के देव वैमानिक है। उनका वैमानिक नाम पारिभाषिक मात्र है, क्योंकि विमान से तो अन्य निकायों के देव भी चलते है । १७ ।
वैमानिक देवों के दो भेद हैं-कल्पोपपन्न और कल्पातीत । कल्प में रहनेवाले कल्पोपपन्न और कल्प के ऊपर रहनेवाले कल्पातीत । ये समस्त वैमानिक न तो एक ही स्थान में है और न तिरछे हैं किन्तु एक-दूसरे के ऊपर-ऊपर स्थित है । १८-१९ ।
१. यह अनन्त का शब्दार्थ है। उसका पूरा भाव जानने के लिए देखें-हिन्दी चौथा कर्मग्रन्थ।
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