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तत्त्वार्थसूत्र
[४. ११-२० ऊँचाई पर ज्योतिश्चक्र का क्षेत्र आरम्भ होता है जो वहाँ से ऊँचाई मे एक सौ दस योजन का है और तिरछे असंख्यात द्वीपसमुद्र तक है । दस योजन की ऊँचाई पर अर्थात् उक्त समतल से आठ सौ योजन की ऊँचाई पर सूर्य के विमान है । वहाँ से अस्सी योजन ऊँचे अर्थात् समतल से आठ सौ अस्सी योजन ऊपर चन्द्र के विमान है। वहाँ से बीस योजन की ऊँचाई तक अर्थात् समतल से नौ सौ योजन की ऊँचाई तक ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्ण तारागण है । प्रकीर्ण तारों से आशय यह है कि कुछ तारे ऐसे भी है जो अनियतचारी होने से कभी सूर्य-चन्द्र के नीचे चलते है और कभी ऊपर । चन्द्र के ऊपर बीस योजन की ऊँचाई मे पहले चार योजन की ऊँचाई पर नक्षत्र है, फिर चार योजन की ऊँचाई पर बुधग्रह, बुध से तीन योजन की ऊँचाई पर शुक, शुक्र से तीन योजना की ऊँचाई पर गुरु, गुरु से तीन योजन ऊपर मङ्गल और मङ्गल से तीन योजन ऊपर शनैश्चर है । अनियतचारी तारा सूर्य के नीचे चलते समय ज्योतिष-क्षेत्र में सूर्य के नीचे दस योजन तक रहता है। ज्योतिष ( प्रकाशमान ) विमान मे रहने से सूर्य आदि ज्योतिष्क कहलाते हैं । इन सबके मुकुटों मे प्रभामण्डल जैसा उज्ज्वल, सूर्यादिमण्डल जैसा चिह्न होता है । सूर्य के सूर्यमण्डल जैसा, चन्द्र के चन्द्रमण्डल जैसा और तारा के तारामण्डल जैसा चिह्न होता है । १३ ।
चरज्योतिष्क-मानुषोत्तर पर्वत तक मनुष्यलोक होने की बात पहले कही जा चुकी है। मनुष्यलोक के ज्योतिष्क सदा मेरु के चारों ओर भ्रमण करते रहते है । मनुष्यलोक मे एक सौ बत्तीस सूर्य और चन्द्र है-जम्बूद्वीप मे दो-दो, लवणसमुद्र मे चार-चार, धातकीखण्ड मे बारह-बारह, कालोदधि मे बयालीसबयालीस और पुष्करार्ध मे बहत्तर-बहत्तर है । एक चन्द्र का परिवार २८ नक्षत्र, ८८ ग्रह और ६६९७५ कोटाकोटि तारों का है। यद्यपि लोकमर्यादा के स्वभावानुसार ज्योतिष्कविमान सदा अपने-आप घूमते रहते है तथापि समृद्धि-विशेष प्रकट करने के लिए और आभियोग्य ( सेवक ) नामकर्म के उदय से क्रीडाशील कुछ देव उन विमानों को उठाते है । सामने के भाग में सिहाकृति, दाहिने गजाकृति, पीछे वृषभाकृति और बाये अश्वाकृतिवाले ये देव विमान को उठाकर चलते रहते है । १४ ।
कालविभाग-मुहूर्त, अहोरात्र, पक्ष, मास आदि, अतीत, वर्तमान आदि एवं संख्येय-असख्येय आदि के रूप मे अनेक प्रकार का कालव्यवहार मनुष्यलोक में होता है, उसके बाहर नहीं होता। मनुष्यलोक के बाहर यदि कोई कालव्यवहार करनेवाला हो और व्यवहार करे तो मनुष्यलोक प्रसिद्ध व्यवहार के अनुसार ही
१ देखें-अ० ३, सू० १४ ।
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