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तत्त्वार्थसूत्र
[ ४. ११-२० असुरकुमार, नागकुमार, विद्युत्कुमार, सुपर्णकुमार, अग्निकुमार, वासकुमार, स्तनितकुमार, उदधिकुमार, द्वीपकुमार और दिक्कुमार-ये (दस ) भवनवासीनिकाय है।
किन्नर, किपुरुष, महोरग, गान्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच--- ये ( आठ ) व्यन्तरनिकाय हैं ।
सूर्य, चन्द्र तथा ग्रह, नक्षत्र और प्रकीर्ण तारा-ये (पाँच) ज्योतिष्कनिकाय है।
वे मनुष्यलोक में मेरु के चारों ओर प्रदक्षिणा करते हैं तथा नित्य गतिशील है।
काल का विभाग उनके ( चरज्योतिष्कों) द्वारा किया हुआ है। ज्योतिष्क मनुष्यलोक के बाहर स्थिर होते हैं। चतुर्थ निकायवाले वैमानिक देव हैं। वे कल्पोपपन्न और कल्पातीत है । ऊपर-ऊपर रहते हैं।
सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण और अच्युत ( इन १२ कल्पों) तथा नौ अवेयक और विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित एवं सर्वार्थसिद्ध में उनका निवास है।
भानपति-दसो प्रकार के भवनपति देव जम्बूद्वीपवर्ती सुमेरुपर्वत के नीचे, उसके दक्षिण और उत्तर भाग मे तिरछे अनेक कोटाकोटि लक्ष योजन तक रहते है । असुरकुमार प्राय आवासो मे और कभी भवनों में बसते है तथा नागकुमार आदि सब प्रायः भवनों में ही बसते है । आवास रत्नप्रभा के पृथ्वीपिड मे ऊपरनीचे के एक-एक हजार योजन को छोडकर बीच के एक लाख अठहत्तर हजार योजन के भाग मे सब जगह है, पर भवन तो रत्नप्रभा के नीचे नब्बे हजार योजन के भाग में ही होते है। आवास बडे मण्डप जैसे होते है और भवन नगर के समान । भवन बाहर से गोल, भीतर से समचतुष्कोण और तल मे पुष्करकणिका जैसे होते है।
सभी भवनपति इसलिए कुमार कहे जाते है कि वे कुमार की तरह मनोहर तथा सुकुमार दीखते है। उनकी गति मृदु व मधुर होती है तथा वे क्रीडाशील होते है । दस प्रकार के भवनपति देवो की चिह्नादि स्वरूपसम्पत्ति जन्मना अपनी-अपनी जाति में भिन्न भिन्न है । जैसे असुरकुमारों के मुकुट में चूडामणि का, नागकुमारों के
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