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तत्त्वार्थमूत्र
[ १. १८-१९
सामान्य रूप से बतलाया गया है उसी को संख्या, जाति आदि द्वारा पृथक्करण करके बहु, अल्प आदि विशेष रूप से पूर्व सूत्र मे बतलाया गया है । १७ ।
इन्द्रियो की ज्ञानोत्पत्ति-पद्धतिसम्बन्धी भिन्नता के कारण अवग्रह के अवान्तर भेद
व्यञ्जनस्याऽवग्रहः । १८ । न चक्षुरनिन्द्रियाभ्याम् । १९ ।
व्यञ्जन- - उपकरणेन्द्रिय का विषय के साथ संयोग होने पर अवग्रह ही होता है ।
नेत्र और मन से व्यञ्जन होकर अवग्रह नहीं होता ।
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जैसे लंगड़े मनुष्य को चलने मे लकडी का सहारा अपेक्षित है वैसे ही आत्मा की आवृत चेतना शक्ति को पराधीनता के कारण ज्ञान उत्पन्न करने में सहारे की अपेक्षा है । उसे इन्द्रिय और मन का बाहरी सहारा चाहिए । सब इन्द्रियों और मन का स्वभाव समान नही है, इसलिए उनके द्वारा होनेवाली ज्ञानधारा के आविर्भाव का क्रम भी समान नही होता । यह क्रम दो प्रकार का है- - मन्दक्रम और पटुक्रम ।
मन्दक्रम मे ग्राह्य विषय के साथ उस उस विषय की ग्राहक उपकरणेन्द्रिय का सयोग ( व्यञ्जन ) होते ही ज्ञान का आविर्भाव होता है । शुरू मे ज्ञान की मात्रा इतनी अल्प होती है कि उससे 'यह कुछ है' ऐसा सामान्य बोध भी नही हो पाता, परन्तु ज्योज्यो विषय और इन्द्रिय का सयोग पुष्ट होता जाता है, ज्ञान की मात्रा भी बढती जाती है । उक्त संयोग ( व्यंजन ) की पुष्टि के साथ कुछ काल में जनित ज्ञानमात्रा भी इतनी पुष्ट हो जाती है कि जिससे 'यह कुछ है' ऐसा विषय का सामान्य बोध ( अर्थावग्रह ) होता है । इस अर्थावग्रह का उक्त व्यञ्जन से उत्पन्न पूर्ववर्ती ज्ञानव्यापार, जो उस व्यञ्जन की पुष्टि के साथ ही क्रमशः पुष्ट होता जाता है, व्यञ्जनावग्रह कहलाता है, क्योंकि उसके होने में व्यञ्जन अपेक्षित है । यह व्यञ्जनात्रग्रह नामक दीर्घ ज्ञानव्यापार उत्तरोत्तर पुष्ट होने पर भी इतना अल्प होता है कि उससे विषय का सामान्य बोध भी नही होता । इसलिए उसको अव्यक्ततम, अव्यक्ततर, अव्यक्त ज्ञान कहते है । जब वह ज्ञानव्यापार इतना पुष्ट हो जाय कि उससे 'यह कुछ है' ऐसा सामान्य बोध हो सके तब वही सामान्य बोधकारक ज्ञानाश अर्थावग्रह कहलाता है । अर्थावग्रह भी व्यञ्जनावग्रह का एक चरम पुष्ट अंश है क्योंकि उसमे भी विषय और इन्द्रिय का संयोग अपेक्षित है । तथापि
१. इसके स्पष्टीकरण के लिए देखें - अ० २, सू० १७ ।
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