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तत्त्वार्थमुत्र
[ १.३४-३५
सम्पूर्ण मानने को प्रेरित होता है और इसी प्रेरणावश वह दूसरे के विचारों को समझने का धैर्य खो बैठता है । अन्तत वह अपने आशिक ज्ञान में ही सम्पूर्णता का आरोप कर लेता है । इस आरोप के कारण एक ही वस्तु के विषय मे सच्चे लेकिन भिन्न-भिन्न विचार रखनेवालो के बीच सामंजस्य नही रहता । फलत. पूर्ण और सत्य ज्ञान का द्वार बन्द हो जाता है ।
आत्मा आदि किसी भी विषय में अपने आप्तपुरुष के आशिक विचार को ही जब कोई दर्शन सम्पूर्ण मानकर चलता है तब वह विरोधी होने पर भी यथार्थ विचार रखनेवाले दूसरे दर्शनो को अप्रमाण कहकर उनकी अवगणना करता है । इसी तरह दूसरा दर्शन उसकी और फिर दोनो किसी तीसरे की अवगणना करते है । परिणामत. समता की जगह विषमता और विवाद खड़े हो जाते है । इसीलिए सत्य और पूर्ण ज्ञान का द्वार खोलने और विवाद मिटाने के लिए ही नयवाद की प्रतिष्ठा की गई है । उससे यह सूचित किया गया है कि प्रत्येक विचारक को चाहिए कि वह अपने विचार को आगम प्रमाण कहने के पूर्व यह देख ले कि उसका विचार प्रमाण कोटि में आने योग्य सर्वाशी है अथवा नही है । नयवाद के द्वारा ऐसा निर्देश करना ही जैनदर्शन की विशेषता है ।
सामान्य लक्षरण -- किसी भी विषय का सापेक्ष निरूपण करनेवाला विचार न है ।
संक्षेप मे नय के दो भेद है - द्रव्याथिक और पर्यायार्थिक ।
जगत् मे छोटी या बडी सभी वस्तुएँ एक-दूसरे से न तो सर्वथा असमान ही होती है, न सर्वथा समान । इनमे समानता और असमानता दोनो अंश रहते है । इसीलिए 'वस्तुमात्र 'सामान्य - विशेष (उभयात्मक) है,' ऐसा कहा जाता है । मनुष्य की बुद्धि कभी तो वस्तुओं के सामान्य अंश की ओर झुकती है और कभी विशेष अंश की ओर । जब वह सामान्य अंश को ग्रहण करती है तब उसका वह विचार द्रव्यार्थिक नय कहलाता है और जब वह विशेष अंश को ग्रहण करती है तब पर्यायार्थिक नय कहलाता है । सभी सामान्य और विशेष दृष्टियाँ भी एक-सी नही होती, उनमें भी अन्तर रहता है । यही बतलाने के लिए इन दो दृष्टियो के फिर संक्षेप मे भाग किये गये है । द्रव्यार्थिक के तीन और पर्यायार्थिक के चारइस तरह कुल सात भाग बनते है और ये ही सात नय है । द्रव्यदृष्टि मे विशेष पर्याय ) और पर्यायदृष्टि मे द्रव्य ( सामान्य ) आता ही नही, ऐसी बात नहीं है । यह दृष्टिविभाग तो केवल गौण-प्रधान भाव की अपेक्षा से ही है ।
प्रश्न - ऊपर निरूपित दोनों नयों को सरल उदाहरणों द्वारा समझाइए । उत्तर -- कही भी, कभी भी और किसी भी अवस्था में रहकर समुद्र की
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