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तत्त्वार्थसूत्र
[ १. ३४-३५ समभिरूढ और एवंभूत । यह परम्परा जैनागमो और दिगम्बर ग्रन्थों की है । दूसरी परम्परा सिद्धसेन दिवाकर की है। वे नैगम को छोडकर शेष छः भेदो को मानते है । तीसरी परम्परा प्रस्तुत सूत्र और उसके भाष्य की है। इसके अनुसार नय के मूल पाँच भेद है और बाद मे प्रथम नैगम नय के (भाष्य के अनुसार) देशपरिक्षेपी और सर्वपरिक्षेपी ये दो तथा पांचवें शब्द नय के साम्प्रत, समभिरूढ़ और एवंभूत ये तीन भेद है ।
नयों के निरूपण का भाव-कोई भी एक या अनेक वस्तुओ के विषय मे एक या अनेक व्यक्तियों के अनेक विचार होते है । एक ही वस्तु के विषय मे भिन्नभिन्न विचारों की संख्या अपरिमित हो जाती है । तद्विषयक प्रत्येक विचार का बोध होना असम्भव हो जाता है । अतएव उनका अतिसंक्षिप्त और अतिविस्तृत प्रतिपादन छोडकर मध्यम-मार्ग से प्रतिपादन करना ही नयो का निरूपण है । इसी को विचारों का वर्गीकरण कहते है। नयवाद का अर्थ है विचारो की मीमासा । नयवाद में मात्र विचारों के कारण उनके परिणाम या उनके विषयों की ही चर्चा नहीं आती। जो विचार परस्परविरुद्ध दिखाई पड़ते है पर वास्तव मे जिनका विरोध नहीं है, उन विचारो के अविरोध के बीज की गवेषणा करना ही नयवाद का मुख्य उद्देश्य है । अत. नयवाद की संक्षिप्त व्याख्या इस तरह हो सकती है-'परस्परविरुद्ध दिखाई देनेवाले विचारो के वास्तविक अविरोध के बीज की गवेषणा करके उन विचारो का समन्वय करनेवाला शास्त्र ।' जैसे आत्मा के विपय में ही परस्परविरुद्ध मन्तव्य मिलते है। कही 'आत्मा एक है ऐसा कथन है, तो कही 'अनेक है' ऐसा कथन भी मिलता है । एकत्व और अनेकत्व परस्परविरुद्ध दिखाई पडते है। ऐसी स्थिति मे प्रश्न होता है कि इन दोनों का यह विरोध वास्तविक है या नही ? यदि वास्तविक नहीं तो कैसे ? इसका उत्तर नयवाद ने ढूंढ निकाला है और ऐसा समन्वय किया है कि व्यक्तिरूप से देखा जाय तो आत्मतत्त्व अनेक है, किन्तु शुद्ध चैतन्य की दृष्टि से वह एक ही है। इस तरह का समन्वय करके नयवाद परस्परविरोधी वाक्यों में भी अविरोध या एकवाक्यता सिद्ध करता है। इसी तरह आत्मा के विषय में परस्परविरुद्ध दिखाई देनेवाले नित्यत्व-अनित्यत्व, कर्तृत्व-अकर्तृत्व आदि मतो का भी अविरोध नयवाद से ही सिद्ध होता है। ऐसे अविरोध का बीज विचारक की दृष्टि ( तात्पर्य ) में ही है । इसी दृष्टि के लिए प्रस्तुत शास्त्र में “अपेक्षा' शब्द है । अतः नयवाद को अपेक्षावाद भी कहा जाता है।
नयवाद की देशना और उसकी विशेषता-ज्ञान-निरूपण मे श्रुत' की १. देखें-१० १, सू० २० ।।
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