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२. ३७-४९ ]
शरीरों के विषय
वह आहारक की तरह लब्धिजन्य ही है । इस मत के अनुसार अन्तराल गति में केवल कार्मण शरीर होता है । अतएव उस समय एक शरीर का होना सम्भव है ।
प्रश्न--जो यह कहा गया कि वैक्रिय और आहारक इन दो लब्धियों का युगपत् अर्थात् एक साथ प्रयोग नहीं होता, इसका क्या कारण है ?
उत्तर-वैक्रियलब्धि के प्रयोग के समय और उस लब्धि से शरीर बना लेने पर नियम से प्रमत्तदशा होती है। परन्तु आहारक के विषय मे ऐसा नहीं है, क्योंकि आहारकलब्धि का प्रयोग तो प्रमत्तदशा मे होता है, पर उससे शरीर बना लेने के बाद शुद्ध अध्यवसाय सम्भव होने के कारण अप्रमत्तभाव पाया जाता है । अतः उक्त दो लब्धियो का प्रयोग एक साथ असिद्ध है। सारांश यह है कि आविर्भाव की अपेक्षा से युगपत् पाँच शरीरो का न होना कहा गया है। शक्तिरूप से तो पांचों शरीर भी हो सकते है, क्योकि आहारकलब्धिवाले मुनि के वैक्रियलब्धि भी सम्भव है। ४४ ।
प्रयोजन-प्रत्येक वस्तु का कोई-न-कोई प्रयोजन होता है । इसलिए शरीर भी सप्रयोजन होने चाहिए, पर प्रश्न यह है कि उनका मुख्य प्रयोजन क्या है और वह सब शरीरों के लिए समान है या कुछ विशेषता भी है ? शरीर का मुख्य प्रयोजन उपभोग है जो पहले चार शरीरों से सिद्ध होता है। केवल अन्तिम कार्मण शरीर से सिद्ध नहीं होता, इसीलिए उसको निरुपभोग कहा गया है।
प्रश्न-उपभोग का क्या अर्थ है ?
उत्तर-कर्ण आदि इन्द्रियों से शुभ-अशुभ शब्द आदि विषय ग्रहण करके सुखदु.ख का अनुभव करना; हाथ, पांव आदि अवयवो से दान, हिंसा आदि शुभ-अशुभ कर्म का बंध करना; बद्धकर्म के शुभ-अशुभ विपाक का अनुभव करना; पवित्र अनुष्ठान द्वारा कर्म की निर्जरा ( क्षय ) करना-यह सब उपभोग कहलाता है।
प्रश्न-औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर सेन्द्रिय तथा सावयव है, इसलिए उक्त प्रकार का उपभोग उनसे साध्य हो सकता है। पर तैजस शरीर न तो सेन्द्रिय है और न सावयव, अत. उससे उक्त उपभोग कैसे सम्भव है ?
उत्तर-यद्यपि तैजस शरीर सेन्द्रिय और सावयव ( हस्तपादादियुक्त ) नही है तथापि उसका उपभोग पाचन आदि ऐसे कार्य मे हो सकता है जिससे सुख दु ख का अनुभव आदि उक्त उपभोग सिद्ध हो । उसका अन्य कार्य शाप और अनुग्रह भी है। अर्थात् अन्न-पाचन आदि कार्य मे तैजस शरीर का उपभोग तो सभी करते है, पर जो विशिष्ट तपस्वी तपस्याजन्य विशिष्ट लब्धि प्राप्त कर
१. यह विचार अ० २, सू० ४४ की भाष्यवृत्ति मे है ।
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