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अधोलोक-मध्यलोक द्वितीय अध्याय मे गति की अपेक्षा से संसारी जीवों के नारक, मनुष्य, तिच और देव ऐसे चार प्रकार कहे गए है । स्थान, आयु, अवगाहना आदि के वर्णन द्वारा उनका विशेष स्वरूप तीसरे और चौथे अध्याय मे निरूपित है । प्रस्तुत तृतीय अध्याय में नारक, तिर्यंच और मनुष्य का वर्णन है ।
नारकों का वर्णन रत्नशर्करावालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रभा भूमयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोऽधः पृथुतराः।१। तासु नरकाः ।२। नित्याशुभतरलेश्यापरिणामदेहवेदनाविक्रियाः । ३ । परस्परोदीरितदुःखाः । ४। संक्लिष्टासुरोदीरितदुःखाश्च प्राक्चतुर्थ्याः । ५। तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाः सत्त्वानां परा स्थितिः।६। रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, वालुकाप्रभा, पङ्कप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा ये सात भूमियाँ हैं । ये भूमियाँ घनाम्बु, वात और आकाश पर स्थित हैं, एक-दूसरे के नीचे हैं और नीचे को ओर अधिकअधिक विस्तीर्ण हैं।
उन भूमियों में नरक हैं। वे नरक नित्य ( निरन्तर ) अशुभतर लेश्या, परिणाम, देह, वेदना और विक्रिया वाले हैं। परस्पर उत्पन्न किये गए दुःखवाले हैं ।
चौथी भूमि से पहले अर्थात् तीन भूमियों तक संक्लिष्ट असुरों के द्वारा उत्पन्न किये गए दुःखवाले भी है।
उन नरकों में स्थित प्राणियों की उकृष्ट स्थिति क्रमशः एक, तीन, सात, दस, सतरह, बाईस और तैंतीस सागरोपम है।
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