________________
९२
तत्त्वार्थसूत्र
[३.७-१८
वर्षधर है, परन्तु सबके नाम जम्बूद्वीपवर्ती मेरु, वर्षधर और वर्ष के समान ही है । वलयाकृति धातकीखण्ड के पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध दो भाग है । यह विभाग दो पर्वतो से होता है, जो दक्षिणोत्तर विस्तृत है और इष्वाकार ( बाण के समान सीधे ) है । प्रत्येक विभाग मे एक-एक मेरु, सात-सात वर्ष और छ:-छः वर्षधर है। साराश यह है कि नदी, क्षेत्र, पर्वत आदि जो कुछ जम्बूद्वीप मे है वे सब धातकीखण्ड मे दुगुने है । धातकीखण्ड को पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध मे विभक्त करनेवाले दक्षिणोत्तर विस्तृत और इष्वाकार दो पर्वत है तथा पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध में पूर्व-पश्चिम मे फैले हुए छ.-छ. वर्षधर ( पर्वत ) है । ये सभी एक ओर से कालोदधि को और दूसरी ओर से लवणोदधि को स्पर्श करते है । पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध मे स्थित छ.-छः वर्षधरों को पहिये की नाभि में लगे हुए आरों की उपमा दी जाय तो उन वर्षधरों से विभक्त होनेवाले भरत आदि सात क्षेत्रो को आरों के बीच के अन्तर की उपमा दी जा सकती है ।
धातकीखण्ड मे मेरु, वर्ष और वर्षधरों की जो संख्या है वही पुष्करार्ध द्वीप में भी है । वहाँ भी दो मेरु, चौदह वर्ष तथा बारह वर्षधर है जो इष्वाकार पर्वतो द्वारा विभक्त पूर्वार्ध और पश्चिमार्ध मे अवस्थित है । इस प्रकार ढाई द्वीप मे पाँच मेरु, तीस वर्षधर ( पर्वत ) और पैतीस वर्ष (क्षेत्र ) है । उक्त पैंतीस क्षेत्रों के पाँच महाविदेह क्षेत्रों में पांच देवकुरु, पाँच उत्तरकुरु और एक सौ साठ विजय है । अन्तर्वीप केवल लवणसमुद्र मे ही है, अतः छप्पन ही है । पुष्करवरद्वीप मे मानुषोत्तर नाम का एक पर्वत है, जो पुष्करवरदीप के ठोक मध्य मे किले की तरह गोलाकार खडा है और मनुष्यलोक को घेरे हुए है । जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड
और आधा पुष्करवर द्वीप ये ढाई तथा लवण, कालोदधि ये दो समुद्र--यही क्षेत्र 'मनुष्यलोक' कहलाता है। उक्त क्षेत्र का नाम मनुष्यलोक और उक्त पर्वत का नाम मानुषोत्तर इसलिए पडा है कि इससे बाहर मनुष्य का जन्म-मरण नही होता । विद्यासम्पन्न मुनि या वैक्रिय लब्धिधारी मनुष्य ही ढाई द्वीप के बाहर जा सकते है, कितु उनका भी जन्म-मरण मानुषोत्तर पर्वत के अंदर ही होता है । १२-१३ । __मनुष्यजाति का क्षेत्र और प्रकार-मानुपोत्तर पर्वत के पहले जो ढाई द्वीप और दो समुद्र है उनमे मनुष्य की स्थिति है अवश्य, पर वह सार्वत्रिक नही। जन्म से तो मनुष्यजाति का स्थान मात्र ढाई द्वीप के अन्तर्गत पैतीस क्षेत्रों और छप्पन अन्तर्वीपों मे ही है परन्तु संहरण, विद्या या लब्धि के निमित्त से मनुष्य ढाई द्वीप तथा दो समुद्रो के किसी भी भाग में रह सकता है । इतना ही नही, मेरुपर्वत की चोटी पर भी वह उक्त निमित्त से रह सकता है। फिर भी यह
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org