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देवलोक
तृतीय अध्याय में मुख्यरूप से नारकों, मनुष्यों और तिर्यञ्चो की स्थिति, क्षेत्र आदि का वर्णन किया गया है। इस चतुर्थ अध्याय मे देवों के निकायों, उनकी स्थिति, उनकी विशेषताओं आदि का वर्णन किया जा रहा है।
देवों के प्रकार
देवाश्चतुनिकायाः।१। देव चार निकायवाले हैं।
समूह विशेष या जाति को निकाय कहते है । देवों के चार निकाय या प्रकार है-१. भवनपति, २. व्यन्तर, ३ ज्योतिष्क और ४. वैमानिक ।१।
तृतीय निकाय की लेश्या
तृतीयः पीतलेश्यः' ।२। तीसरा निकाय पीतलेश्यावाला है।
उक्त चार निकायों में ज्योतिष्क तीसरे निकाय के देव है। उनमे केवल पीत (तेजः ) लेश्या होती है । यहाँ लेश्या' का अर्थ द्रव्यलेश्या अर्थात् शारीरिक वर्ण है, अध्यवसाय-विशेष के रूप मे भावलेश्या नहीं; क्योकि छहों भावलेश्याएँ तो चारों निकायों के देवों में होती है । २ ।
१. दिगम्बर परम्परा में भवनपति, व्यन्तर और ज्योतिष्क इन तीन निकायो मे कृष्ण से तेजः पर्यन्त चार लेश्याएँ मानी गयी है, पर श्वेताम्बर परम्परा में भवनपति व व्यन्तर दो निकायों में ही उक्त चार लेश्याएं मानी गयी है और ज्योतिष्क निकाय मे केवल तेजोलेश्या। इसी मतभेद के कारण श्वेताम्बर परम्परा मे यह दसरा और आगे सातवाँ दोनो सत्र भिन्न है। दिगम्बर परम्परा मे इन दोनो सत्रो के स्थान पर एक ही सूत्र 'आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्याः' प्रचलित है ।
२. लेश्या के विशेष स्पष्टीकरण के लिए देखें-हिन्दी 'चौथा कर्मग्रन्थ' में 'लेश्या' शब्द-विषयक परिशिष्ट, पृ० ३३ ।
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