________________
तत्त्वार्थसूत्र
[ ३. ७-१८
अन्त तक चलता है । अन्तिम द्वीप स्वयम्भूरमण है, जिससे अंतिम समुद्र स्वयम्भूरमण का विष्कम्भ दुगुना है ।
रचना-द्वीप-समुद्रों की रचना चक्की के पाट और उसके थाल के समान है। जम्बूद्वीप लवणसमुद्र से वेष्टित है। इसी प्रकार लवणसमुद्र धातकीखण्ड से, धातकीखण्ड कालोदधि से, कालोदधि पुष्करवरद्वीप से और पुष्करवरद्वीप पुष्करोदधि से वेष्टित है । यही क्रम स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यंत है।
प्राकृति-जम्बूद्वीप थाली के समान गोल है और अन्य सब द्वीप-समुद्रों की आकृति वलय ( चूडी) के समान है । ७-८ ।
जम्बू द्वीप के क्षेत्र और प्रधान पर्वत-जम्बूद्वीप सबसे प्रथम और सब द्वीपसमुद्रों के मध्य मे है अर्थात् उसके द्वारा कोई द्वीप या समुद्र वेष्टित नहीं है। जम्बूद्वीप का विष्कम्भ एक लाख योजन है । वह कुम्हार के चाक की भांति गोल है, लवणादि की तरह वलयाकृति नही । उसके बीच में मेरुपर्वत है । संक्षेप में मेरु का वर्णन इस प्रकार है :
मेरु की ऊँचाई एक लाख योजन है, जिसमें एक हजार योजन का भाग भूमि के अन्दर अर्थात् अदृश्य है । निन्यानबे हजार योजन का भाग भूमि के ऊपर है। जमीन के अन्दरवाले भाग की लम्बाई-चौडाई सब जगह दस हजार योजन है। बाहरी भाग के ऊपर का अंश, जहाँ से चूलिका निकलती है, एक-एक हजार योजन लम्बा-चौडा है। मेरु के तीन काण्ड है । वह तीनों लोकों में अवगाहित होकर स्थित है और चार वनों से घिरा है । प्रथम काण्ड एक हजार योजन का है जो जमीन में है। दूसरा तिरसठ हजार योजन का और तीसरा छत्तीस हजार योजन का है । पहले काण्ड में शुद्ध पृथिवी तथा कंकड़ आदि की, दूसरे मे चाँदी, स्फटिक आदि की और तीसरे मे स्वर्ण की प्रचुरता है । क्रमशः चार वनों के नाम भद्रशाल, नन्दन, सौमनस और पाण्डुक हैं । एक लाख योजन की ऊंचाई के बाद सबसे ऊपर एक चूलिका ( चोटी ) है, जो चालीस योजन ऊँची है । वह मूल में बारह योजन, बीच मे आठ योजन और ऊपर चार योजन लम्बी-चौडी है ।
जम्बूद्वीप मे मुख्यतया सात क्षेत्र है जो वंश, वर्ष या वास्य कहलाते है। इनमे पहला भरत दक्षिण की ओर है। भरत के उत्तर में हैमवत, हैमवत के उत्तर में हरि, हरि के उत्तर मे विदेह, विदेह के उत्तर मे रम्यक, रम्यक के उत्तर में हैरण्यवत और हैरण्यवत के उत्तर मे ऐरावतवर्ष है। व्यवहारसिद्ध दिशा के नियम' के अनुसार मेरु पर्वत सातों क्षेत्रो के उत्तरी भाग मे अवस्थित है ।
१ दिशा का नियम सर्य के उदयास्त पर निर्भर है। सर्योदय की ओर मुख करके खडे होने पर बायीं ओर उत्तर दिशा मे मेरु पडता है । भरतक्षेत्र में सूर्यास्त की दिशा ही
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org