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तत्त्वार्थसूत्र
[ ३. ७-१८
निर्वाण भी प्राप्त कर सकते है । पाँच भूमियों के नारक मनुष्य गति में संयम धारण कर सकते है । छः भूमियों से निकले हुए नारक जीव देशविरति और सात भमियों से निकले हुए सम्यक्त्व प्राप्त कर सकते है।
द्वीप-समुद्र प्रादि की अवस्थिति-रत्नप्रभा भूमि को छोड शेष छः भूमियों में न तो द्वीप, समुद्र, पर्वत और सरोवर ही है; न गाँव, शहर आदि है; न वृक्ष, लता आदि बादर वनस्पतिकाय है; न द्वीन्द्रिय से लेकर पञ्चेन्द्रिय तक तिर्यच है; न मनुष्य है और न किसी प्रकार के देव ही है। रत्नप्रभा का कुछ भाग मध्यलोक मे सम्मिलित है, अत. उसमें द्वीप, समुद्र, ग्राम, नगर, वनस्पति, तिर्यच, मनुष्य, देव होते है । रत्नप्रभा के अतिरिक्त शेष छ. भूमियों में केवल नारक और कुछ एकेन्द्रिय जीव ही है । इस सामान्य नियम का भी अपवाद है, क्योंकि उन भूमियों मे कभी किसी स्थान पर कुछ मनुष्य, देव और पञ्चेन्द्रिय तिर्यंचों का होना भी सम्भव है। मनुष्य तो इस अपेक्षा से सम्भव है कि केवली समुद्घात करनेवाला मनुष्य सर्वलोकव्यापी होने से उन भूमियों में भी आत्मप्रदेश फैलाता है। वैक्रियलब्धिवाले मनुष्य की भी उन भूमियो तक पहुँच है। तिर्यचों की पहुँच भी उन भूमियों तक है, परन्तु यह केवल वैक्रियलब्धि की अपेक्षा से ही मान्य है । कुछ देव कभीकभी अपने पूर्वजन्म के मित्रो को दुःखमुक्त करने के उद्देश्य से नरकों में पहुँच जाते है। किन्तु देव भी केवल तीन भूमियों तक ही जा पाते है। नरकपाल कहे जानेवाले परमाधार्मिक देव जन्म से ही पहली तीन भूमियो मे रहते हैं, अन्य देव जन्म से केवल पहली भूमि मे पाये जाते है । ६ ।
मध्यलोक जम्बूद्वीपलवणादयः शुभनामानो द्वीपसमुद्राः । ७। द्विद्विविष्कम्भाः पूर्वपूर्वपरिक्षेपिणो वलयाकृतयः। ८। तन्मध्ये मेरुनाभित्तो योजनशतसहस्रविष्कम्भो जम्बूद्वीपः। ९ । तत्र भरतहैमवतहरिविदेहरम्यकहैरण्यवतैरावतवर्षाः क्षेत्राणि । १० । तद्विभाजिनः पूर्वापरायता हिमवन्महाहिमवन्निषधनीलरुक्मिशिखरिणो वर्षधरपर्वताः । ११ । द्विर्धातकीखण्डे । १२ । पुष्करार्धे च । १३। प्राङ्मानुषोत्तरान् मनुष्याः । १४ । आर्या म्लेच्छाश्च । १५ । भरतैरावतविदेहाः कर्मभूमयोऽन्यत्र देवकुरूत्तरकुरुभ्यः । १६ ।
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