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तत्त्वार्थ सूत्र
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होती । साराश यह है कि अपवर्तनीय आयुवाले प्राणियों को शस्त्र आदि कोई-नकोई निमित्त मिल ही जाता है जिससे वे अकाल में ही मर जाते है और अनपवर्तनीय आयुवालों को कैसा भी प्रबल निमित्त क्यों न मिले, वे अकाल मे नही मरते ।
श्रधिकारी- - उपपात जन्मवाले नारक और देव ही होते है । मनुष्य ही चरमदेह तथा उत्तमपुरुष होते हैं । बिना जन्मान्तर के उसी शरीर से मोक्ष पानेवाले चरमदेह कहलाते है । तीर्थंकर, चक्रवर्ती, वासुदेव आदि उत्तमपुरुष कहलाते है । असंख्यातवर्षजीवी कुछ मनुष्य और कुछ तिर्यच ही होते है ।" इनमे से औपपातिक और असंख्यातवर्षजीवी निरुपक्रम अनपवर्तनीय आयुवाले ही होते हैं । चरमदेह और उत्तमपुरुष सोपक्रम अनपवर्तनीय तथा निरुपक्रम अनपवर्तनीय दोनों आयुवाले होते है । इनके अतिरिक्त शेष सभी मनुष्य व तिर्यच अपवर्तनीय आयुवाले होते है ।
प्रश्न – नियत कालमर्यादा के पहले आयु का भोग हो जाने से कृतनाश, अकृतागम और निष्फलता ये दोष लगेंगे, जो शास्त्र मे इष्ट नही है; इनका निवारण कैसे होगा ?
उत्तर - शीघ्र भोग होने मे उक्त दोष नही है, क्योंकि जो कर्म चिरकाल तक भोगा जा सकता है वह एक साथ भोग लिया जाता है । उसका कोई भी भाग बिना विपाकानुभव के नही छूटता । इसलिए न तो कृतकर्म का नाश है और न बद्धकर्म की निष्फलता ही है । इसी प्रकार मृत्यु कर्मानुसार ही आती है, अतएव अकृतकर्म का आगम भी नही है । जैसे घास की सघनराशि मे एक ओर से छोटा अग्निकण छोड़ दिया जाय तो वह अग्निकण एक-एक तिनके को क्रमशः जलाते हुए उस सारी राशि को कुछ देर में भस्म कर सकता है । वे ही अग्निकण घास की शिथिल राशि में चारों ओर से छोड़ दिये जायँ तो एक साथ उसे जला डालते है ।
इस बात के विशेष स्पष्टीकरण के लिए शास्त्र में और भी दो दृष्टान्त दिये गए है : पहला गणितक्रिया का और दूसरा वस्त्र सुखाने का । जैसे किसी विशिष्ट संख्या का लघुतम छेद निकालना हो तो गणितप्रक्रिया में इसके लिए अनेक उपाय है । निपुण गणितज्ञ ऐसी रीति का उपयोग करता है कि बहुत शीघ्र अभीष्ट
१. असंख्यातवर्षजीवी मनुष्य तीस अकर्मभूमियो, छप्पन अन्तद्वीपो और कर्मभूमियों मे उत्पन्न युगलिक ही हैं । परन्तु असंख्यातवर्षजीवी तिर्यच तो उक्त क्षेत्रो के अतिरिक्त ढाई द्वीप के बाहर के द्वीप - समुद्रो मे भी होते है ।
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