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तत्त्वार्थसूत्र
[२. ५२
लिग तीन है-पुलिग, स्त्रीलिंग और नपुसकलिंग । लिंग का दूसरा नाम वेद भी है। ये तीनो वेद द्रव्य और भाव रूप से दो-दो प्रकार के है ।' द्रव्यवेद अर्थात् ऊपर का चिह्न और भाववेद अर्थात् अभिलाषा-विशेष । १ जिस चिह्न से पुरुष की पहचान होती है वह द्रव्य-पुरुषवेद है और स्त्री के संसर्ग-सुख की अभिलाषा भाव-पुरुषवेद है। २ स्त्री की पहचान का साधन द्रव्य-स्त्रीवेद और पुरुष के संसर्ग-सुख की अभिलाषा भाव-स्त्रीवेद है। ३. जिसमें कुछ स्त्री के चिह्न और कुछ पुरुष के चिह्न हो वह द्रव्य-नपुसकवेद और स्त्री-पुरुष दोनों के संसर्ग-सुख की अभिलाषा भाव-नपुसकवेद है। द्रव्यवेद पौद्गलिक आकृतिरूप है जो नामकर्म के उदय का फल है । भाववेद एक मनोविकार है जो मोहनीय कर्म के उदय का फल है । द्रव्यवेद और भाववेद मे साध्य-साधन या पोष्य-पोषक का सम्बन्ध है।
बिभाग--नारक और सम्मूर्छिम जीवों के नपुसकवेद होता है। देवो के नपुसकवेद नहीं होता, शेष दो होते है । शेष सब अर्थात् गर्भज मनुष्यों तथा तिर्यञ्चों के तीनों वेद होते है ।
विकार की तरतमता-पुरुष-वेद का विकार सबसे कम स्थायी होता है । स्त्रीवेद का विकार उससे अधिक स्थायी और नपुसक-वेद का विकार स्त्रीवेद के विकार से भी अधिक स्थायी होता है । यह बात उपमान से इस तरह समझी जा सकती है :
पुरुषवेद का विकार घास की अग्नि के समान है जो शीघ्र शान्त हो जाता है और प्रकट भी शीघ्र होता है। स्त्री वेद का विकार अंगारे के समान है जो जल्दी शान्त नही होता और प्रकट भी जल्दी नही होता। नपुसकवेद का विकार सन्तप्त ईंट के समान है जो बहुत देर मे शान्त होता है तथा प्रकट भी बहुत देर मे होता है।
स्त्री मे कोमल भाव मुख्य है जिसे कठोर तत्त्व की अपेक्षा रहती है। पुरुष मे कठोर भाव मुख्य है जिसे कोमल तत्त्व की अपेक्षा रहती है। पर नपुसक मे दोनों भावों का मिश्रण होने से उसे दोनों तत्त्वों की अपेक्षा रहती है । ५०-५१ ।
आयुष के प्रकार और उनके स्वामी औपपातिकचरमदेहोत्तमपुरुषाऽसंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुषः । ५२ ।
औपपातिक (नारक और देव ), चरमशरीरी, उत्तमपुरुष और असंख्यातवर्षजीवी-ये अनपवर्तनीय आयुवाले ही होते हैं ।
१. द्रव्य और भाव वेद का पारस्परिक सम्बन्ध तथा तत्सम्बन्धी अन्य आवश्यक बातें जानने के लिए देखें-हिन्दी चौथा कर्मग्रन्थ, पृ० ५३ की टिप्पणी।
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