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२. ५०-५१ ]
वेद (लिंग) के प्रकार उत्तर-चतुर्दश पूर्वधारी मुनि के होती है । प्रश्न-वे उस लब्धि का प्रयोग कब और किसलिए करते है ?
उत्तर-किसी सूक्ष्म विषय मै सन्देह होने पर उसके निवारण के लिए अर्थात् जब कभी किसी चतुर्दश पूर्वधारी मुनि को गहन विषय मे सन्देह हो और सर्वज्ञ का सन्निधान न हो तब वे औदारिक शरीर से क्षेत्रान्तर मे जाना असम्भव देखकर अपनी विशिष्ट लब्धि का प्रयोग करते है और हस्तप्रमाण छोटा-सा शरीर बनाते है, जो शुभ पुद्गल-जन्य होने से सुन्दर होता है, प्रशस्त उद्देश्य से बनाये जाने के कारण निरवद्य होता है और अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण अव्याघाती अर्थात् किसी को रोकनेवाला या किसी से रुकनेवाला नहीं होता। ऐसे शरीर से वे क्षेत्रान्तर मे सर्वज्ञ के निकट पहुँचकर अपने सन्देह का निवारण कर फिर अपने स्थान पर लौट आते है। यह कार्य केवल अन्तर्मुहूर्त मे हो जाता है ।
प्रश्न-अन्य कोई शरीर लब्धिजन्य नही है ? उत्तर-नही।
प्रश्न-शाप और अनुग्रह के द्वारा तैजस का जो उपभोग बतलाया गया, उससे तो वह लब्धिजन्य स्पष्ट मालूम होता है, फिर अन्य कोई शरीर लब्धिजन्य नही है, ऐसा क्यों ?
उत्तर-यहाँ लब्धिजन्य का अर्थ उत्पत्ति है, प्रयोग नही । तैजस की उत्पत्ति लब्धि से नहीं होती, जैसे वैक्रिय और आहारक की होती है, पर उसका प्रयोग कभी-कभी लब्धि से किया जाता है। इसी आशय से तैजस शरीर को यहाँ लब्धिजन्य ( कृत्रिम ) नहीं कहा गया । ४६-४९ ।
वेद ( लिंग ) के प्रकार नारकसम्मूछिनो नपुंसकानि । ५०।
न देवाः । ५१ । नारक और संमूछिम नपुंसक ही होते है । देव नपुंसक नहीं होते।
शरीरों के वर्णन के बाद वेद या लिग का प्रश्न उठता है । इसी का स्पष्टी. करण यहाँ किया गया है । चिह्न को लिग कहते है । वह तीन प्रकार का है । यह बात पहले औदयिक भावो की सख्या बतलाते समय कही जा चुकी है।'
१. देखें-अ० २, सू०६ ।
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