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२. ३७-४९ ]
शरीरों के विषय
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होने पर भी औदारिक आदि के स्कन्ध से वैक्रिय आदि के स्कन्ध का असंख्यातगुण अधिक होना असम्भव नहीं है । ३९-४० ।
अन्तिम दो शरीरों का स्वभाव, कालमर्यादा और स्वामी-उक्त पाँचों शरीरों मे से पहले तीन की अपेक्षा अन्तिम दो शरीरों में कुछ विशेषता है, जो क्रमशः तीन सूत्रों में तोन बातों के द्वारा बतलाई गई है।
स्वभाव-तैजस और कार्मण इन दो शरीरों का सारे लोक मे कही भी प्रतिघात नही होता अर्थात् वज्र जैसी कठिन वस्तु भी उन्हे प्रवेश करने से रोक नही सकती, क्योंकि वे अत्यन्त सूक्ष्म है । यद्यपि एक मूर्त वस्तु का दूसरी मूर्त वस्तु से प्रतिघात होता है, तथापि यह प्रतिघात का नियम स्थूल वस्तुओं पर लागू होता है, सूक्ष्म पर नही । सूक्ष्म वस्तु बिना रुकावट के सर्वत्र प्रवेश कर जाती है, जैसे लौहपिण्ड में अग्नि ।
प्रश्न-तब तो सूक्ष्म होने से वैक्रिय और आहारक को भी अप्रतिघाती ही कहना चाहिए?
उत्तर--अवश्य, वे भी बिना प्रतिघात के प्रवेश करते है । पर यहाँ अप्रतिघात का अर्थ लोकान्त पर्यन्त अव्याहतगति है। वैक्रिय और आहारक अव्याहतगतिवाले है, पर तैजस व कार्मण की भाँति सम्पूर्ण लोक मे नही, किन्तु लोक के विशिष्ट भाग अर्थात् त्रसनाडी में ही।
__ कालमर्यादा-तैजस और कार्मण का सम्बन्ध आत्मा के साथ प्रवाहरूप से जैसा अनादि है वैसा पहले तीन शरीरो का नही है, क्योकि वे तीनो शरीर अमुक काल के बाद कायम नही रहते । इसलिए औदारिक आदि तोनो शरीर कदाचित् ( अस्थायी ) सम्बन्धवाले कहे जाते है और तैजस व कार्मण अनादि सम्बन्धवाले ।
प्रश्न---जब कि वे जीव के साथ अनादि सम्बद्ध है, तब तो उनका अभाव कभी न होना चाहिए, क्योंकि अनादिभाव' का नाश नही होता?
उत्तर-उक्त दोनों शरीर व्यक्ति की अपेक्षा से नही, प्रवाह की अपेक्षा से अनादि है । अतएव उनका भी अपचय-उपचय होता है। जो भावात्मक पदार्थ व्यक्तिरूप से अनादि होता है वही नष्ट नहीं होता, जैसे परमाणु ।
स्वामी-तैजस और कार्मण शरीर सभी संसारी जीव धारण करते है, पर औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर नही । अत तैजस व कार्मण के स्वामी सभी संसारी जीव है, जब कि औदारिक आदि के स्वामी कुछ ही जीव होते है ।
प्रश्न-तैजस और कार्मण मे कुछ अन्तर तो होगा ही? १. तुलना करें-नासतो वियते भावो नाभावो विद्यते सतः।-गीता, २.१६ ।
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