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२. ३७-४९]
शरीरो के विषय पहला अर्थात् औदारिक शरीर सम्मूर्छनजन्म और गर्भजन्म से ही होता है।
वैक्रिय शरीर उपपातजन्म से होता है । वह लब्धि से भी होता है।
आहारक शरीर शुभ (प्रशस्त पुद्गल द्रव्यजन्य), विशुद्ध (निष्पाप कार्यकारी ) और व्याघात (बाधा) रहित होता है तथा वह चौदह पूर्वधारी मुनि के ही होता है ।
जन्म ही शरीर का आरम्भ है, इसलिए जन्म के बाद शरीर का वर्णन किया गया है । शरीर से सम्बन्धित अनेक प्रश्नों पर आगे क्रमशः विचार किया जा रहा है।
शरीर के प्रकार तथा व्याख्या-देहधारी जीव अनन्त है, उनके शरीर भी अलग-अलग है । अतः वे व्यक्तिशः अनन्त है । पर कार्य-कारण आदि के सादृश्य की दृष्टि से संक्षेप में उनके पाँच प्रकार बतलाये गए है, जैसे औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ।
शरीर जीव का क्रिया करने का साधन है। १. जो शरीर जलाया जा सके व जिसका छेदन-भेदन हो सके वह औदारिक है। २. जो शरीर कभी छोटा, कभी बडा, कभी पतला, कभी मोटा, कभी एक, कभी अनेक इत्यादि रूपों को धारण कर सके वह वैक्रिय है। ३. जो शरीर मात्र चतुर्दशपूर्वी मुनि के द्वारा ही निर्मित किया जा सके वह आहारक है । ४. जो शरीर तेजोमय होने से खाये हुए आहार आदि के परिपाक का हेतु और दीप्ति का निमित्त हो वह तैजस है । ५ कर्मसमूह ही कार्मण शरीर है । ३७ ।
स्थूल-सूक्ष्म भाव--उक्त पाँचो शरीरो मे औदारिक शरीर सबसे अधिक स्यूल है, वैक्रिय उससे सूक्ष्म है, आहारक वैक्रिय से भी सूक्ष्म है। इसी तरह आहारक से तैजस और तैजस से कार्मण सूक्ष्म व सूक्ष्मतर है।
प्रश्न-यहाँ स्थूल और सूक्ष्म से क्या तात्पर्य है ?
उत्तर-स्थूल और सूक्ष्म का अर्थ है रचना की शिथिलता और सघनता, परिमाण नही। औदारिक से वैक्रिय सूक्ष्म है, पर आहारक से स्थूल है । इसी प्रकार आहारक आदि शरीर भी पूर्व-पूर्व की अपेक्षा सूक्ष्म और उत्तर-उत्तर की अपेक्षा स्थूल है; अर्थात् यह स्थूल-सूक्ष्म भाव अपेक्षाकृत है । तात्पर्य यह है कि जिस शरीर की रचना जिस दूसरे शरीर की रचना से शिथिल हो वह उससे स्थूल है और दूसरा उससे सूक्ष्म है। रचना की शिथिलता और सघनता पौद्गलिक परिणति
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