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२. ३७-४९ ]
शरीरों के विषय
उत्तर-योनि आधार है और जन्म आधेय, अर्थात् स्थूल शरीर के लिए योग्य पुद्गलों का प्राथमिक ग्रहण जन्म है और वह ग्रहण जिस जगह हो वह योनि है।
प्रश्न-योनियां तो चौरासी लाख मानी जाती है, फिर यहाँ नौ ही क्यों कही गईं ?
उत्तर-चौरासी लाख योनियों का कथन विस्तार की अपेक्षा से किया गया है। पृथिवीकाय आदि जिस-जिस निकाय के वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के तरतमभाववाले जितने-जितने उत्पत्तिस्थान है उस-उस निकाय की उतनी ही योनियाँ चौरासी लाख में गिनी गई है । यहाँ उन्ही चौरासी लाख योनियों के सचित्त आदि रूप से संक्षेप में नौ विभाग कहे गए है । ३३ ।
जन्म के स्वामी-ऊपर कहे हुए तीन प्रकार के जन्म में से कौन-कौन-सा जन्म किन-किन जीवों का होता है, इसका विभाग नीचे लिखे अनुसार है :
जरायुज, अण्डज और पोतज प्राणियों का गर्भजन्म होता है। देव बोर नारक का उपपातजन्म होता है । शेष सब अर्थात् पाँच स्थावर, तीन विकलेन्द्रिय और अगर्भज पञ्चेन्द्रिय तिर्यच तथा मनुष्य का सम्मूर्छन जन्म होता है। बण्यूब वे है जो जरायु से पैदा हो, जैसे मनुष्य, गाय, स, बकरी आदि जाति के जीव । जरायु एक प्रकार का जाल ( झिल्ली ) जैसा आवरण है जो रक्त और मांस से भरा होता है और जिसमें गर्भस्थ शिशु लिपटा रहता है । अण्डे से पैदा होनेवाले अण्डज है, जैसे साँप, मोर, चिडिया, कबूतर आदि जाति के जीव । जो किसी प्रकार के आवरण से वेष्टित नही होते वे पोतज है, जैसे हाथी, शशक, नेक्ला, चूहा आदि जाति के जीव । ये न तो जरायु से ही लिपटे हुए पैदा होते हैं बौर न अण्डे से, अपितु खुले शरीर पैदा होते है । देवों और नारको के जन्म के लिए विशेष नियत स्थान होता है, जिसे उपपात कहते है। देवशय्या के ऊपर का दिव्यवस्त्र से आच्छन्न भाग देवो का उपपात क्षेत्र है और वज्रमय भीत का गवाक्ष ( कुम्भी) नारको का उपपात क्षेत्र है, क्योकि इस उपपात क्षेत्र में स्थित वैक्रियपुद्गलो को वे शरीर के लिए ग्रहण करते है । ३४-३६ ।
शरीरो के विषय औदारिकवैक्रियाऽऽहार कतैजसकार्मणानि शरीराणि । ३७ । परं परं सूक्ष्मम् । ३८ । प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं' प्राक् तैजसात् । ३९ ।
१. भाष्य की वृत्ति मे प्रदेश शब्द का अर्थ 'अनन्ताणक स्कन्ध किया गया है, परन्तु सर्वार्थसिद्धि आदि में 'परमाणु' अर्थ किया गया है।
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