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२. ८]
जीव का लक्षण
चेतन का विवेकपूर्वक निश्चय उपयोग के द्वारा ही हो सकता है, क्योंकि उपयोग तरतमभाव से सभी आत्माओ मे अवश्य होता है। जड ही उपयोगरहित होता है।
प्रश्न-उपयोग किसे कहते है ? उत्तर ---बोधरूप व्यापार को उपयोग कहते है । प्रश्न-आत्मा मे बोध की क्रिया होती है और जड मे नही, ऐसा क्यों ?
उत्तर-बोध का कारण चेतनाशक्ति है । जिसमे चेतनाशक्ति हो उसी में बोधक्रिया सम्भव है । चेतनाशक्ति आत्मा मे ही होती है, जड़ में नही ।
प्रश्न-आत्मा स्वतन्त्र द्रव्य है इसलिए उसमे अनेक गुण होने चाहिए, फिर उपयोग को ही लक्षण क्यों कहा गया ?
उत्तर-निःसन्देह आत्मा मे अनन्त गुण-पर्याय है, पर उन सब मे उपयोग ही मुख्य है, क्योकि स्व-परप्रकाशरूप होने से उपयोग ही अपना तथा अन्य पर्यायों का ज्ञान कराता है । इसके सिवाय आत्मा जो कुछ अस्ति-नास्ति जानता है, ननु-नच करता है, सुख दु.ख का अनुभव करता है वह सब उपयोग के द्वारा हो । अतएव उपयोग ही सब पर्यायो मे प्रधान है।
प्रश्न-क्या लक्षण स्वरूप से भिन्न है ? उत्तर-नही।
प्रश्न-तब तो पहले जिन पाँच भावों को जीव का स्वरूप कहा गया है वे भी लक्षण हुए, फिर दूसरा लक्षण बतलाने का प्रयोजन क्या है ?
उत्तर-सब असाधारण धर्म भी एक-से नही होते । कुछ तो ऐसे हैं जो लक्ष्य में होते है अवश्य, पर कभी होते है और कभी नही। कुछ ऐसे भी है जो समग्र लक्ष्य में नही रहते और कुछ ऐसे भी होते है जो तीनों कालों में समग्र लक्ष्य में रहते है । समग्र लक्ष्य में तीनो कालो मे उपयोग ही होता है । इसलिए लक्षणरूप से उसी का पृथक् रूप से कथन किया गया और उससे यह सूचित किया गया है कि औपशमिक आदि भाव जीव के स्वरूप है अवश्य, पर वे न तो सब आत्माओं में पाये जाते है और न त्रिकालवर्ती ही है। त्रिकालवर्ती और सब आत्माओं में पाया जानेवाला एक जीवत्वरूप पारिणामिक भाव ही है, जिसका फलित अर्थ उपयोग ही है। इसलिए उसी का कथन अलग से यहाँ लक्षणरूप में किया गया है । दूसरे सब भाव कादाचित्क (कभी होनेवाले, कभी नही होनेवाले), कतिपय लक्ष्यवर्ती और कर्म-सापेक्ष होने से जीव के उपलक्षण हो सकते है, लक्षण नहीं।
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